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कबीर-ग्रंथावली

'कबीर राति होवहि कारिया कारे उभे जंतु ।
लै फाहे उठि धावते सिजानि मारे भगवंतु ॥ ३७ ।।
कबीर गरबु न कीजियै चाम लपेटे हाड़ ।
हैवर ऊपर छत्र तर ते फुन धरनी गाड़ ॥ ३८ ॥
कबीर गरबु न कीजियै ऊँचा देखि अवासु ।
अाजु कालि भुइ लेटना ऊपरि जामै घासु ॥ ३८ ॥
कबीर गरबु न कीजियै रंकु न हसियै कोइ ।
अजहु सुनाउ समुद्र महि क्या जानै क्या होइ ॥ ४० ॥
कबीर गरबु न कीजियै देही देखि सुरंग ।
आजु कालि तजि जाहुगे ज्यों काँचुरी भुअंग ॥४१॥ .
गहगच परयो कुटंब के कंठ रहि गयो राम ।
प्राइ परे धर्म राइ के बीचहि धूमा धाम ॥ ४२ ॥
कबीर गागर जल भरी आजु कालि जैहै फूटि ।
गुरु जु न चेतहि आपुनो अधमाझ लो जाहिगे लूटि ।। ४३ ॥
गुरु लागा तब जानिये मिटै मोह तन ताप ।
हरप सोग दाझै नहीं तब हरि आपहि आप ।। ४४ ॥ .
कबीर घाणी पीड़ते सति गुरु लियं छुड़ाइ ।
परा पूरबली भावनी परगत होई आइ ॥ ४५ ॥
चकई जौ निसि बीछुरै भाइ मिले परभाति ।
जो नर बिछुरै राम स्यों ना दिन मिले न राति ॥ ४६ ।।
चतुराई नहिं अति घनी हरि जपि हिरदै माहि ।
सूरी ऊपरि खेलना गिरै त ठाहरि नाहि ।। ४७ ॥
चरन कमल की मौज को कहि कैसे उनमान ।
कहिवे को सोभा नहीं देखा ही परवान ।। ४८ ।।
कबीर चावल कारने तुखकौ मुहली लाइ ।
संग कुसंगी बैसते तब पूछै धर्मराइ ॥ ४६ ।।