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कबीर-ग्रंथावली

एक घड़ी प्राधी घड़ी आधी हूं ते आध ।
भगतन सेटी गोसटे जो कीने सो लाभ ॥ ११ ॥
एक मरते दुइ मुये दोइ मरंतेहि चारि ।
चारि मरंतहि छहि मुये चारि पुरुष दुइ नारि ॥ १२ ॥
ऐसा एकु आधु जो जीवत मृतक होइ।
निरभै होइ कै गुन रवै जत पैखा तत सोइ ।। १३ ॥
कबीर ऐसा को नहीं इह तन देवै फूकि ।
अंधा लोगुन जानई रह्यो कबीरा कूकि ॥ १४ ॥
ऐसा जंतु इक देखिया जैसी देखी लाख ।
दीसै चंचलु बहु गुना मति-हीना नापाक ॥ १५ ॥
कबीर ऐसा बीजु बोइ बारह मास फलंत ।
सीतल छाया गहिर फल पंखो केल करत ॥ १६ ॥
ऐसा सत गुरु जे मिले तुट्ठा करे पसाउ ।
मुकति दुबारा मोकला सहजे आवौ जाउ ॥ १७ ॥
कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीन ।
मरने ते क्या डरपना जब हाथ सिंधौरा लीन ॥ १८ ॥
कंचन के कुंडल बने ऊपर लाल जड़ाउ।
दीसहि दाधे कान ज्यों जिन मन नाही नाउ ॥ १६ ॥
कबीर कसौटी राम की झूठा टिका न कोइ।
राम कसौटी सो स है जो मरि जीवा होइ ॥ २० ॥
कबीर कस्तूरी भया भवर भये सब दास ।
ज्यों ज्यों भगति कबीर की त्यों त्यों राम निवास ॥ २१ ।।
कागद केरी ओबरी मसु के कर्म कपाट ।
पाहन बोरी पिरथमी पंडित पाड़ी बाट ।। २२ ॥
काम परे हरि सिमिरियै ऐसा सिमरौ नित्त ।
अमरापुर बासा करहु हरि गया पहोरै वित्त ॥ २३ ॥