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कबीर-ग्रंथावली

ग्यांन न पायौ बावरे, धरी अविद्या मैंड ।
सतगुर मिल्या न मुक्ति फल, ताथै खाई बैंड ।।
बालक है भग द्वारे प्रावा, भग भुगतन कू पुरिष कहावा ।।
ग्यांन न सुमिरसौ निरगुण सारा, बिष थै बिरचिन किया विचारा
भाव भगति सूरि न अराधा, जनम मरन की मिटी न साधा
साध न मिटी जनम की, मरन तुरांना प्राइ ।
मन क्रम बचन न हरि भज्या, अंकुर बीज नसाइ ।
तिण चरि सुरही उदिक जु पीया, द्वारै दूध बछ • दाया ।
बछा चूखत उपजी न दया, बछा बांधि बिछोही मया ।।
ताका दूध आप दुहि पीया, ग्यांन बिचार कछू नहीं कीया ।।
जे कुछ लोगनि सोई कीया, माला मत्र बादि ही लीया ।।
पीया दूध रुध्र ह प्राया, मुई गाइ तब दोष लगाया ।
बाकस ले चमरां कू दीन्हीं, तुचा रंगाइ करौती कीन्हीं ॥
ले रुकरौती बैठे संगा, ये देखौ पांडे के रंगा॥
तिहि रुकरौती पाणी पीया, यहु कुछ पांडे अचिरज कीया ।
अचिरज कीया लोक मैं, पीया सुहागल नीर ।
इंद्री स्वारथि सब कीया, बंध्यां भरम सरीर ।।
एकै पवन एकही पाणों, करी रसोई न्यारी जानी ।।
माटी सूमाटी ले पोती, लागी कहा कहां धूं छोती ।।
धरती लीपि पवित्र कीन्हों, छोति उपाय लीक बिचि दोन्हीं॥
याका हम सूकही विचारा, क्यूंभव तिरिहै। इहि प्राचारा ।
ए पाखंड जीव के भरमां, मांनि अमांनि जीव के करमा ।।
करि प्राचार जु ब्रह्म संतावा, नांव बिना संतोष न पावा ।।
सालिग राम सिला करि पूजा, तुलसी तोड़ि भया नर दूजा ॥
ठाकुर ले पाट पाढावा, भोग लगाइ अरु प्रापै खावा ।।
साच सील का चौका दीजै, भाव भगति की सेवा कीजै ॥