पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३२७

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रमैरगी

द्वारामती सरीर न छाड़ा, जगननाथ ले प्यंड न गाड़ा ।। ।
कहै कबीर बिचारि करि, ये ऊले ब्योहार ।
याही थें जे अगम है, सो बरति रहया संसारि ॥
नां तिस सबद न स्वाद न साहा, नां तिहि मात पिता नहीं मोहा।।
नां तिहि सास ससुर नहीं सारा, नां तिहि रोज न रोवनहारा ॥
नां तिहि सूतिग पातिग जातिग, नो तिहि माइ न देव कथा पिक ।
नां तिहि ब्रिध बधावा बाजै, नां तिहि गीत नाद नहीं साजै॥
नां तिहि जाति पात्य कुल लीका,नां तिहि छोति पवित्र नहीं सींचा।।
कहै कबीर बिचारि करि, वो है पद निरबांन ।
सति ले मन मैं राखिये, जहां न दूजी आन ।।
न सो प्रावै नां सो जाई, ताकै बंध पिता नहीं माई ॥
चार बिचार कछू नहीं वाकै, उनमनि लागि रहै। जे ताकै ।
को है आदि कवन का कहिये, कवन रहनि वाका है रहिये ।।
कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को खोजै दुरि ।
ध्यान धरौ मन सुध करि, राम रहवा भरपूरि ।।
नाद बिंद रक इक खेला, आफैं गुरू आप ही चेला ।।
प्रा मात्र प्रापै मला, श्राफैं पूजै प्राप पूजेला ।
आ गावै अाप बजावै, अपना कीया आप ही पावै ।।
प्रापैं धूप दीप भारती, अपनी आप लगावै जाती ॥
कहै कबीर बिचारि करि, झूठा लोही चाम ।
जो या देही रहित है, सो है रमिता राम ॥
. [चौपदी रमणी]
ऊंकार प्रादि है मूला, राजा परजा एकहि सूला ॥
हम तुम्ह मा एकै लोहू, एकै प्रॉन जीवन है मोहू ॥ .
एकही बास रहै दस मासा, सुतग पातग एकै पासा ॥
एकहि जननी जन्या संसारा, कौंन ग्यान भै भये निनारा ॥