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कबीर-ग्रंथावली

अरु भूले पट दरसन भाई, पाखंड भेष रहे लपटाई ।।
जैन बोध अरु साकत सैना, चार बाक चतुरंग बिहुँनां ।।
जैन जीव की सुधि न जाने, पाती तोरि देहुरै नै ।
दोनों मवरा चपक फूला, तामैं जीव बसै कर तूला ।
अरु प्रिथमी का रोम उपा', देखत जीव कोटि संघारै ।
मनमथ करम करै अस राला, कलपत बिंद धसै तिहि द्वारा ॥
ताकी हत्या होइ अदभूता, षट दरसन मैं जैन बिगूता ।।
ग्यान अमर पद बाहिरा, नेड़ा ही दूरि।
जिनि जान्यां तिनि निकटि है,राम रह्या सकल भरपुरि।।
प्रापन करता भये कुलाला, बहु बिधि सिष्टि रची दर हाला ।।
विधनां कुभ कीये द्वै थांना, प्रतिबिंबता मांहि समानां ।।
बहुत जतन करि बांनक बांनां, सौंज मिलाय जीव तहां ठांनां ॥
जठर अगनि दो की परजाली, ता मैं आप करै प्रतिपाली ॥
भीतर थे जब बाहरि प्रावा, सिव सकती द्व नांव धरावा ।।
भूल भरमि परै जिनि कोई, हिंदू तुरक झूठ कुल दाई ।।
घर का सुत जे होइ अयांना, ताकै संगि क्यू जाइ सयांनां ।।
साची बात कहै जे वासों, सो फिरि कहै दिवानां तासूं ॥
गोप भिन है एकै दूधा, कासू कहियं बाम्हन सूदा ।।
जिनि यहु चित्र बनाइया, सो साचा सुतधार ।
कहै कबीर ते जन भले, जे चित्रवत लेहि बिचार ॥ ५॥
[ बारहपदी रमैणी ]
पहली मन मैं सुमिरौं सोई, ता सम तुलि अवर नहीं कोई ।।
कोई न पूजै वासू प्रांनो, आदि अंति वो किनहून जानां ॥
रूप सरूप न पावै बोला, हरू गरू कछू जाइ न तोला ।
भूख न त्रिषा धूप नहीं छांहीं, सुख दुख रहित रहै सव माहीं ॥