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कबीर-ग्रंथावली

सुख समाधि सुख भया हमारा,मिल्या न बेगर होइ ।
जिहि लाधा सो जांनि है,राम कबीर और न जाने कोइ ॥४॥
[ अष्टपदी रमणी ]
केऊ कंऊ तीरथ व्रत लपटांनां,कंऊ कंऊ केवल रांम निज जांनां।
अजरा अमर एक अस्थांनां,ताका मरम काहू बिरलै जांनां ।।
अवरन जोति सकल उजियारा,द्रिष्टि समान दास निस्तारा ।।
जे नहीं उपज्या धरनि मरीरा,ताकै पथिन सींच्या नीरा ॥
जा नहीं लागे सूर जि के बांनां,सो मोहि आंनि देहु को दांनां ॥
जब नहीं होते पवन नहीं पानी,जब नहीं होती सिष्टि उपानी ।।
जब नहीं होते प्यंड न बासा,तब नहीं होते धरनि अकासा ॥
जब नहीं होतं गरभ न मूला,तब नहीं होते कली न फूला ॥
जब नहीं होतं सबद न स्वादं,तब नहीं होते विद्या न बादं ।।
जब नहीं होते गुरू न चेला,गम अगमैं पंथ अकेला ॥
अब गति की गति क्या कहू, जस कर गांव न नांव ।
गुन बिहू'न का पेखियं,काकर धरिय नांव ।।
प्रादम आदि सुधि नहीं पाई,मां मां हवा कहां थें आई ।।
जब नहीं होते राम खुदाई,साखा मूल प्रादि नहीं भाई ।।
जब नहीं होते तुरक न हिंदू,माका उदर पिता का व्यंदू ॥
जब नहीं होते गाइ कगाई,तब विसमला किनि फुरमाई ॥
भूले फिर दोन ह धावै,ता माहिब का पंथ न पावै ॥
संजोगें करि गुण धपा,बिजोगै गुण जाइ ।
जिभ्या स्वारथि आपणे,कीजै बहुत आइ ।।
जिनि कलमांकलि मांहि पठावा,कुदरति खोजि तिन्हूं नहीं पात्रा।
कर्म करीम भये क्तूता,वेद कुरान भयं दोऊ रीता ॥
कृतम सोजु गरम अवतरिया,कृतम सो जु नाव जस धरिया।