पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३१३

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रमैणी

पंच तत ले कीन्ह बंधानं, पाप पुंनि मान अभिमानं ।
अहंकार कीन्हें माया मोहू, संपति बिपति दीन्हीं सब काहू ॥
भले रे पोच अकुल कुलवंतां, गुंणी निरगुणी धन नीधनवतां ॥
भूख पियास अनहित हित कीन्हां, हेत मोर तार करि लीन्हां ॥
पंच स्वाद ले कीन्हां बंधू, वंधे करम ओ आहि प्रबंधू॥
अवर जीव जंत जे पाहीं, संकुट सोच बियापै ताहीं ।
निंद्या प्रस्तुति मांन अभिमांना, इनि झूठ जीव हत्या गियांनां ॥
बहु बिधि करि संसार भुलावा, झूठे दोजगि साच लुकावा ।।
माया मोह धन जोबना, इनि बंधे सब लोइ।
झूठे झूठ बियापिया कबीर, अलख न लखई कोइ ।
झूठनि झूठ साच करि जानां, झूठनि मैं सब साच लुकांना ॥
धंध बंध कीन्ह बहुतेरा, क्रम विवर्जित रहै न नेरा।
षट दरसन प्राश्रम षट कीन्हा, पट रस खाटि काम रस लीन्हा।।
चारि बेद छह सास्त्र बखाने, विद्या अनंत कथै को जानें ।।
तप तीरथ कीन्हें व्रत पूजा, धरम नेम दांन पुन्य दूजा ।।
और अगम कीन्हैं ब्यौहारा, नहीं गमि सूझ वार न पारा ।
लीला करि करि भेख फिरावा, नोट बहुत कछु कहत न पावा।
गहन व्यद कछू नहीं सूझै, आपन गोप भयो पागम बूझै ॥
भूलि परयौ जीव अधिक डराई, रजनी अंधकूप हाई ॥
माया मोह उन₹ भरपूरी, दादुर दांमिनि पवनां पूरी ।।
तरिपै बरिषै अखंड धारा, रे नि भांमनी भया अँधियारा ॥
तिहि विवोग तजि भये अनाथा, परे निकुज न पांव पंथा ॥
बेद न पाहि कहूं को माने, जानि बूझि में भया प्रयानै ।।
नट बहु रूप खेलै सब जाने, कला केर गुन ठाकुर मनि ।।
ओ खेले सब ही घट मांहीं, दूसर के लेखै कछु नाहीं।।
जाके गुन सोई पैं जानै, और को जाने पार प्रयानै ॥