पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३११

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रमैंणी

तता आहि निनार निर जनां, आदि अनादि न ांन ।
कहन सुनन की कीन्ह जग, प्रापै पाप भुलान ।।
जिनि नरवै नटसारी साजी, जो खेले सो दीसै बाजी ।।
मो अपरा थे जोगति ढाठी, सिव विरचि नारद नहीं दीठी ॥ .
आदि अंति जो लीन भये हैं, सहजै जांनि संतोखि रहे हैं ।।
सहजै राम नाम ल्यौ लाई, राम नाम कहि भगति दिढाई ।।
गंम नाम जाका मन मानां, तिनि तो निज मरूप पहिचांना ॥
निज सरूप निरंजनां, निराकार अपर पार अपार ।
राम नाम ल्यौ लाइस जियरे, जिनि भूलै बिस्तार ।।
करि घिसतार जग धधै लाया, अंब काया थें पुरिष उपाया ॥
जिहि जैसी मनसा तिहि तैसा भावा, तळू तैसा कीन्ह उपावा।।
ती माया मोह भुलांना, खसम राम सो किनहूं न जांनां ।।
जिनि जान्यां ते निरमन अंगा, नहीं जान्यां ते भये भुजंगा ।।
ता मुखि विष आवै विष जाई, ते विष ही विष मैं रहै समाई ।।
भाता जगत भूत सुधि नांहीं, भ्रमि भूले नर पावै जांहीं ।।
"जोनि चूझि चेतै नहीं अंधा, करम जठर करम के फंधा ॥
ससा शाई शेज नू वारे, शोई शाब शदेह निवारे॥ .
अति सुत्र बिशरै परम शुख पावै, शो अस्त्री सो कंत कहावै॥
हहा होइ होत नहीं जाने, जब होइ तबै म र माने ।।
है तो सही लहै जे कोई, जब वो होइ नव यहु न होई ॥
ससा उन मन से मन लाव, अनत न जाइ परम सुख पावै ॥
अरु जे तहां प्रेम ल्यो लाये, तो डालह लहै लैहि घरन समावै॥
पपा पिरत पर्पत नहीं चेते, पपत पपत गये जुग कैसे ॥
अत्र जुग जानि जोरि मन रहै, तो जहां थै बिचरयौ सो थिर लहै ॥
बावन अपिर जोरे प्रांनि, एको अपिर सक्या न जांनि ॥
सति का शपद कबीरा कहै, पूछा जाई कहां मन रहै ॥
पंडित लोगनि को लौहार, ग्यानवत को तन बिचारि ॥
जाकै हिरदै जैसी होई, कहै कबीर लहैगा सोई ॥ २ ॥