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कबीर-ग्रंथावली

जाकै नाभि पदम सु उदित ब्रह्मा,चरन गंग तरंग रे ।
कहै कबीर हरि भगति बांछूं,जगत गुर गोव्यंदरं ॥३६०॥

   बिष्णु ध्यांन सनान करि रे,बाहरि अंग न धोइ रे ।
   साच बिन सीझसि नहीं,काईं ग्यान दृष्टैं जोइ रे । टेक ॥
जंजाल मांहै जीव राखै,सुधि नहीं सरीर रे ।
अभिअंतरि भेदै नहीं,कांईं बाहरि न्हावै नीर रे ।।
निहकर्म नदी ग्यांन जल,सुंनि मंडन मांहि रे ।
औधूत जोगी आतमां,कोईं पेणैं संजमि न्हाहि रे ।।
इला प्यंगुला सुषमनां,पछिम गंगा बालि रे ।
कहै कबीर कुस मल झड़ैं,कांईं मांहि लौ अंग पषालि रे॥३६१।।

   भजि नारदादि सुकादि बंदित,चरन पंकज भांमिनीं ।
   भजि भजिसि भूषन पिया मनोहर,देव देव सिरोवनीं ।।टेक।।
बुधि नाभि चंदन चरचिता,तन रिदा मंदिर भीतरा।
रांम राजसि नैंन बांनीं,सुजान सुंदर सुंदरा ।।
बहु पाप परबत छेदनां,भौ ताप दुरिति निवारणां।
कहै कबीर गोव्यंद भजि,परमानंद बंदित कारगां ।।३६२।।

[ राग कल्यांन ]

  ऐसे मन लाइ लै राम रमना,कपट भगति कीजै कीन गुणां ।टेक॥
ज्यूं मृग नादैं बेध्यौ जाइ,प्यंड परै वाकौ ध्यांन न जाइ ।।
ज्यूं जल मींन हंत करि जांनि,प्रॉन तजै बिसरै नहीं बांनि ।।
भ्रिंगी कीट रहै त्यौ लाइ,है लै लीन भ्रिंग है जाइ ।।
रांम नांम निज अमृत सार,सुमरि सुमिरि जन उतरे पार ।।
कहै कबीर दासनि कौ दास,
अब नहीं छाडौं हरि के चरन निवास ॥ ३६३ ॥