पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२९९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१५
पदावली

साध संगति मिलि करि बसंत,भैी बंद न छूटैं जुग जुंगत ॥
कहै कबीर मन भया अनंद,अनंत कला भेटे गोव्यंद ।। ३८१ ।।

बनमाली जांनै बन की आदि,रांम नांम बिन जनम वादि ।टेक।
फूल जु फूले रुति वसंत,जामैं मोहि रहे सब जीव जंत ॥
फूलनि मैं जैसैं रहै तबास,यूं घटि घटि गोविंद है निवास ।।
कहै कबीर मनि भया अनंद,जगजीवन मिलियौ परमानंद ॥३८२।।

मेरे जैसे बनिज सौं कवन काज,मूल घटै सिरि बधै व्याज।टेक।
नाइक एक बनिजारे पांच,बैल पचीस की संग साथ ।
नत्र बहियां दस गौंनि आहि,कसनि बहतरि लागे ताहि ।।
सात सूत मिलि बनिज कीन्ह,कर्म पयादौ संग लीन्ह ।
तीन जगाती करत, रारि,चल्यौ है वनिज वा बनज झारि ।।
बनिज खुटानौं पूंजी दूटि,पाडू दह दिसि गयौ फूटि ।।
कहै कबीर यहु जन्म वाद,महजि समान रही लादि ।। ३८३ ।।

माधौ दारन दुख सह्यौ न जाइ,
मेरी चपल बुधि तातैं कहा बसाइ ।। टेक ।।
तन मन भीतरि बसै मदन चोर,जिनि ग्यांन रतन हरि लीन्ह मोर॥
मैं अनाथ प्रभू कहूं काहि,अनेक विगूचे मैं को आहि ॥
मनक सनंदन सिव सुकादि,आपण कालापति भये ब्रह्मादि ।
जोगी जंगम जती जटांधार,अपनैं औसर सब गये हैं हारि ।।
कहै कबीर रहु संग साथ,अभिअंतरि हरि सू कहौ बात ।।
मन ग्यांन जानि कैं करि बिचार,रांम रमत भौ तिरिबौ पार ॥३८४॥

तू करी डर क्यूं न करै गुहारि,
तूं बिन पंचाननि श्री मुरारि ।। टेक ।। :
तन भींतरि बसै मदन चोर,तिनि सरबस लीनौं छोरि मोर ।।
मांगैं देइ न बिनैं मांन,तकि मारै रिदा मैं कांम बांन ।।