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कबीर-ग्रंथावली

पंचे सखी मिलिहैं सुजांन,चलहु तजई ये त्रिबेणो न्हान ।।
न्हाइ धोइ कैं तिलक दीन्ह,नां जानूं हार किनहूं लीन्ह ॥
हार हिरांनौं जन बिमल कीन्ह,मेरौ आहि परोसनि हार लीन्ह ॥
तीनि लोक की जांनैं पीर,सब देव सिरोमनि कहै कबीर ॥३७८॥

नहीं छाडौं बाबा रांम नांम,
मोहि और पढ़न सूं कौन कांम ।। टेक ।।
प्रहलाड पधारे पढ़न साल, संग सखा लीये बहुत बाल ।।
मोहि कहा पढ़ावै पाल जाल,मंरी पाटी मैं लिखि दे श्रीगोपाल ।।
तब संनां मुरकां कह्यौ जाइ,प्रहिलाद बंधायौ बेगि आइ ।।
तूं राम कहन की छाड़ि बांनि,बेगि छुड़ाऊं मेरौ कह्यो मांति ॥
मोहि कहा डरावै बार बार,जिनि जल थल गिर को कियो प्रहार ॥
बांधि मारि भावै देह जारि,जे हूं रांम छाडौँ तौ मेरे गुरहि गारि॥
तब काढ़ि खड़ग कोप्यो रिसाइ,ताहि राखनहारी मोहि बताइ ।।
खंभा मैं प्रगट्यौ गिलारि, हरनाकम मारो नख विदारि ।।
महापुरुष देवाधिदेव,नरस्य व प्रगट कियौ भगति भेव ।।
कहै कबीर कोई लहै न पार,प्रहिलाद ऊबायौ अनेक बार ॥३७९।।

हरि कौ नांठ तन त्रिलोक सार,लै लीन भये जे उतर पार टेक॥
इक जंगम इक जटाधार,इक अंगि बिभूति करै अपार ।।
इक मुनियर इक मनहूं लीन,ऐसैं होत होत जग जात खीन ।
इक आराधै सकति सीव,इक पड़दा दे दे बधै जीव ।।
इक कुलदेव्यां कौ जपहि जाप,त्रिभवनपति भूले त्रिविध ताप ।।
अंनहि छाड़ि इक पीवहि दूध, हरि न मिलै विन हिरदै सुध ।।
कहै कबीर ऐसै बिचार,राम बिना को उतरे पार ॥ ३८० ॥

हरि बोलि सूत्रा बार बार,तेरी ढिग मींनां कछू करि पुकार ।टेका
अंजन मंजन तजि बिकार,सतगुरु समझायौ तत-सार ।।