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कबीर-ग्रंथावली

अगम अगोचर लखी न जाइ,जहाँ का सहज फिरि तहां समाइ ।।
कहै कबीर झूठे अभिमान,सो हम सा तुम्ह एक समान ॥३६४॥

अहो मेरे गोव्यंद तुम्हारा जोर,काजो बकिवा हस्ती तोर । टेक।।
बांधि भुजा भलै करि डारयौ,हस्ती कोपि मूंड मैं मारसौ ।।
भाग्यौ हस्ती चीसां मारी,वा मूरति की मैं बलिहारी ।।
महावत तोकूं मारौं साटो,इसहि मरांऊं घालौं काटो ।।
हस्ती न तोरै धरै धियान,वाकै हिरदै बसै भगवांन ।।
कहा अपराध संत है। कीन्हां,बांधि पोट कुंजर कू दीन्हां ।।
कुंजर पोट बहु बंदन करै,अजहूं न सूझै काजी अंधरै ।।
तीनि बेर पतिया। लीन्हां,मन कठोर अजहूं न पतीनां ।।
कहै कबीर हमारै गोव्यंद,चौथे पद में जन का ज्यंद ।।३६५।।

कुसल खेम अरु सही सलांमति,ए दाइ काकौं दोन्हां रे।
आवत जात दुहूंयां लूटे,सर्व तत हरि लीन्हां रे ।। टंक।।
माया मोह मद मैं पीया,मुगध कहैं यह मेरी रे ।
दिवस चारि भलैं मन रंजै,यहु नांडी केस करी रे ।।
सुर नर मुनि जन पीर अवलिया,मीरां पैदा कीन्हां रे । . . .
कोटिक भये कहां लूं बरनूं,सबनि पयांनां दीन्हां रे ।
धरती पवन अकास जाइगा,चंद जाइगा सुगरे ।
हम नाही तुम्ह नांही रे भाई,रहे रांम भरपूरा रे ।।
कुसलहि कुसल करत जग खीनां,पड़े काल भौ पासी ।
कहै कबीर सबै जग बिनस्या,रहे राम अबिनासी रे ॥ ३६६ ।।

मन बनजारा जागि न साई,लाहे कारनि मूल न खोई ॥टेक।।
लाहा देखि कहा गरबांनां,गरब न कीजै मूरिख अयांनां ॥
जिनि धन संच्या सो पछितांनां,साथी चलि गये हम भी जांनां ।
निस अंधियारी जागहु बंदे,छिटकन ला सबही संधे ।।