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कबीर-ग्रंथावली

जौ मैं बौरा तो रांम तोरा,लोग मरम का जांनैं मोरा ।।टेक।।
माला तिलक पहरि मनमानां,लोगनि रांम खिलौनां जांनां ॥ .
थोरी भगति बहुत अहंकारा,ऐसे भगता मिलैं अपारा ।।
लोग कहैं कबीर बौराना,कबीरा कौ मरम रांम भल जांनां ॥३४३॥

हरिजन हंस दसा लीये डोलै,
निर्मल नांव चवै जस बोलै ।। टेक !।
मानसरोवर तट के वासी,रांम चरन चित आंन उदासी ।।
मुकताहल बिन चंच न लांवैं,मैंनि गहै कै हरि गुन गांवैं ॥
कऊवा कुबधि निकटि नहीं आवै,सो हंसा निज दरसन पावै॥
कहै कबीर सोई जन तेरा,खीर नीर का करै नबेरा ॥ ३४४ ।।

सति रांम सतगुर की संवा,पूजह रांम निरंजन देवा ॥टेक।।
जल कै मंजन्य जो गति होई,मींनां नित ही न्हावै ।
जैसा मीनां तैमा नरा,फिरि फिरि जोनीं आवै ॥
मन मैं मैना तीर्थ न्हांवै,तिनि बैकुंठ न जांनां ।
पाखंड करि करि जगत भुलांनां,नांहिंन रांम अयांनां ।।'
हिरदै कठौर मरै बानारसि,नरक न बंच्या जाई ।
हरि कौ दाम मरै जे मगहरि,संन्यां मकल तिराई ।।
पाठ पुरांन बंद नहीं सुमृत,तहां बसै निरकारा।
कहै कबीर एक ही ध्यावो,बावलिया संसारा ।। ३४५ ।।

क्या है तेरे न्हांईं धोईं,आतम-रांम न चीन्हां सोई ॥टेक।।
क्या घट ऊपरि मंजन कीयैं,भांतरि मैल अपारा ।
रांम नांम बिन नरक न छूटै,जे धोवै सौ बारा ॥
का नट भेष भगवां बस्तर,भसम लगावै लाई ।
ज्यूं दादुर सुरसुरी जल भीतरि,हरि बिन मुकति न होई ॥