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पदावली

नौग्रह कोटि ठाढे दरबार,धरमराइ पौली प्रतिहार । -
कोटि कुबेर जाकै भरै भंडार,लछमी कोटि करैं सिंगार ।।
कोटि पाप पुनि ब्यौहरैं,इंद्र कोटि जाकी सेवा करैं ।।
जगि कोटि जाकै दरबार,गंध्रप कोटि करैं जैकार ॥
बिद्या कोटि सबै गुंण कहैं,पारब्रह्म कौ पार न लहैं ।।
बासिग कोटि सेज बिमतरै,पवन कोटि चौबारै फिरैं ।
कोटि समुद्र जाकै पणिहारा,रोमावली अठारह भारा ।।
असंखि कोटि जाकै जमावली,रांवण सेन्यां जाथैं चली ॥
सहसबांह के हरे परांण,जरजोधन घाल्यौ खै मांन ।।
बावन कोटि जाकै कुटवाल,नगरी नगरी खेत्रपाल ।।
लट छूटी खेलैं बिकराल,अनत कला नटवर गोपाल !!
कंद्रप कोटि जाकैं लावन करैं,घट घट भीतरि मनसा हरैं ।
दास कबीर भजि सारंगपान,देहु प्रभै पद मांगौ दांन ।।३४०॥

मन न डिगैं ताथैं तन न डराई,
केवल रांम रहे ल्यौ लाई ।। टेक ।।
अति प्रथाह जल गहर गंभीर,बांधि जंजीर जलि बोरे हैं कबीर ॥
जल की तरंग उठि कटिहैं जजीर,हरि सुमिरन तट बैठे हैं कबीर॥
कहै कबीर मेरे संग न साथ,जल थल में राखै जगनाथ ।।३४१॥

भलैं नीदौ भलैं नीदौ भलैं नीदौ लोग,
तन मन रांम पियारे जोग ।। टेक ॥
मैं बारी मेरे रांम भरतार,ता कारंनि रचि करौं स्यंगार ।।
जैसैं धुबिया रज मल धोवै,हर-तप-रत सब निंदक खावै ॥
न्यंदक मेरे माई बाप,जन्म जन्म के काटे पाप ॥
न्यंदक मेरे प्रांन अधार,बिन बेगारि चनावै भार ।।
कहै कबीर न्यंदक बलिहारी,आप रहै जन पार उतारी ॥३४२॥