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कबीर-ग्रंथावली

एक अचंभा ऐसा भया,करणी थैं कारण मिटि गया ।।टेक।।
करणी किया करम का नास,पावक मांहि पुहुप प्रकास ॥
पुहुप मांहि पावक प्रजरै,पाप पुंन दोऊ भ्रम टरै ।।
प्रगटी बास बासना धोइ,कुल प्रगट्यौ कुल घाल्यौ खोइ ।।
उपजी च्यत च्यत मिटि गई, भौ भ्रम भागा ऐसी भई ।।
उलटो गंग मेर कूं चली,धरती उलटि अकासहि मिली।
दास कबीर तत ऐसा कहै,ससिहर उलटि राह की गहै ॥३२६॥

है हजुरि क्या दूरि बतावै,दुंदर बांधे सुंदर पावै ।।टेक।।
सो मुलनां जो मन सूं लरै,अह निसि काल चक्र सूं भिरै ॥
काल चक्र का मरदै मांन,ता मुलनां कूं सदा सलांम ॥ .
काजी सो जो काया बिचारै,अह नसि ब्रह्म अगनि प्रजारै ।।
सुप्पनैं बिंद न देई झरनां,ता काजी कूं जुरा न मरणां ।।
सो सुलितांन जुद्वै सुर तांनैं',वाहरि जाता भीतरि आंनैं ।।
गगन मंडल मैं लसकर करै,सो सुलितांन छत्र सिरि धरै ।।
जोगी गोरख गोरख करै,हिंदू रांम नांम उच्चरै ।।
मुसलमांन कहै एक खुदाइ,
कबीरा कौ स्वांमी घटि घटि रह्यौ समाइ ॥ ३३०॥

आऊंगा न जांऊंगा,मरूगा न जीऊंगा। •
गुर के सबद मैं रमि रमि रहूंगा ।। टेक ।।
आप कटोरा आपै थारी,आपें पुरिखा आपैं नारी ।।
आप सदाफल आपै नींबू,आपै मुसलमांन आपैं हिंदू ॥
आपैं मछ कछ आपैं जाल,आपै झींवर आपै काल ।।
कहै कबीर हम नांही रे नांही,ना हम जीवत न मुवले माहीं॥३३१।।

हंम सब मांहि सकल हम मांहीं,हम थैं और दूसरा नांहीं ।टेक।
तीनि लोक मैं हमारा पसारा,आवागवन सब खेल हमारा ॥