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कबीर-ग्रंथावली

मैं मेरी करि यहु तन खोयौ,समझत नहीं गँवार ।
भौजलि अधफर थाकि रहे हैं,बूड़े बहुत अपार ।।
मोहि आग्या दई दयाल दया करि;काहू कूं समझाइ ।
कहै कबीर मैं कहि कहि हारसौ,अब मोहि दोस न लाइ ॥३१८।।

एक कोस बन मिलांन न मेला।।
बहुतक भाँति करै फुरमाइस,है असवार अकेला ॥ टेक ॥
जोरत कटक जु घेरत सब गढ,करतब झेली झेला ।
जारि कटक गढ तोरि पातिसाह,खेलि चल्यौ एक खेला ।
कूंच मुकांम जोग के घर मैं,कछू एक दिवस खटांनां ।
आसन राखि बिभूति साखि दे,फुनि ले मटी उडांनां ॥
या जोगी की जुगति जु जांनैं,सा सतगुर का चेला।
कहै कबीर उन गुर की कृपा थैं,तिनि सब भरम पछेला ॥३१।६।

[ राग मारू ]

मन रे रांम सुमिरि रांम सुमिरि,रांम सुमिरि,भाई ।
रांम नांम सुमिरन बिना,बूड़त है अधिकाई ।। टेक ।।
दारा सुत ग्रेह नेह,संपति अधिकाई ।
यामैं कछ नाहिं तेरी,काल अवधि पाई ।।
अजामेल गज गनिका,पतित करम कीन्हां ।
तेऊ उतरि पारि गये,राम नाम लीन्हां ।।
स्वांन सूकर कांग कीन्हौं,तऊ लाज न आई।
रांम नांम अंमृत छाडि,काहे बिष खाई ।।
तजि भरम करम विधि नखेद,रांम नांम लेही ।
जन कबीर गुर प्रसादि,रांम करि सनेही ॥ ३२० ॥