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पदावली

गोपाल सुनि एक बीनती,सुमति तन ठहराइ ।
कहै कबीर यह कांम रिप है,मारै सबकूं ढाइ ॥ ३०६ ।।

भगति बिन भौजलि डूबत है रे ।
बाहिथ छाडि बैसि करि डूं डै,
बहुतक दुख सहै रै ॥ टेक ॥
बार बार जम मैं डहकावै,हरि कौ है न रहै रे ।
चेरी के बालक की नाई,कासूं बाप कहै रे ॥
नलिनीं के सुवटा की नांईं,जग सूं राचि रहै रे ।
बंसा अगनि बंस कुल निकसै,आपहि आप दहै रे ॥
यहु संसार धार मैं डूबै,अधफर थाकि रहै रे ।
खेवट बिनां कवन भी तारै,कैसैं पार गहै रे ।।
दास कबीर कहै समझावै,हरि की कथा जीवै रे ।
रांम को नांव अधिक रस मोठौ,बार बार पीवै रे ॥३१०॥
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चलत कत टेढौ टेढी रे ।
नऊ दुवार नरक धरि मूंदे,तू दुरगंधि कौ बेढौ रे । टेक ।।
जे जारै तो होइ भसम तन,रहित किरम जल खाई ।
सूकर स्वांन काग कौ भखिन,तामैं कहा भलाई ।।
फूटे नैं न हिरदै नहीं सूझै,मति एकै नहीं जांनीं ।
माया मोह ममिता तूं बांध्यौ,बूडि मूवै। बिन पांनीं ॥
बारू के घरवा मैं बैठो,चेतत नहीं अयांनां ।
कहै कबीर एक रांम भगति बिन,बूडे बहुत सयांनां ।। ३११ ।।

अरे परदेसी पीव पिछांनि ।
कहा भयौ तोकौं समझि न परई,लागी कैसी बांनि ॥ टेक ॥
भोमि बिडाणी मैं कहा रातौ,कहा कियो कहि मोंहि ।
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