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कबीर-ग्रंथावली

मांहि उदासी माधौ चाहै,चितवत रैनि बिहाइ ।
सेज हमारी स्यंघ भई है,जब सोऊं तब खाइ ।।
यहु अरदास दास की सुनिये,तन की तपति बुझाइ ।
कहै कबीर मिलै जे सांईं,मिलि करि मंगल गाइ ।। ३०६ ॥

   बाल्हा आव हमारे ग्रेह रे,तुम्ह बिन दुखिया देह रे ॥टेक।।
सब को कहै तुम्हारी नारी,मोकौ इहै अदेह रे ।
एकमेक है सेज न सोवै.तब लग कैसा नेह रे ।।
आन न भावै नींद न आवै,ग्रिह बन धरै न धीर रे ।
ज्यूं कांमी कौं कांम पियारा,ज्यूं प्यासे कूं नीर रे ।।
है कोई ऐसा पर-उपगारी,हरि सूं कहै सुनाइ रे ।।
ऐसे हाल कवीर भयै हैं,बिन देखे जीव जाइ रे ।। ३०७ ।।

   माधौ कब करिहै। दया ।
   कांम क्रोध अहंकार व्यापै,नां छूटे माया !! टेक ।
उतपति ब्यंद भयौ जा दिन थैं कबहूँ सच नहीं पायौ ।
पंच चोर संगि लाइ दिए हैं,इन संगि जनम गंवायौ ॥
तन मन डस्यौ भुजंग भांमिनीं,लहरी वार न पारा ।
सो गारडू मिल्यौ नहीं कबहुँ,पमरयौ बिघ बिकराला !!
कहै कबीर यहु कानूं कहिये,यहु दुख कोइ न जांनैं ।
देहु दीदार बिकार दूरि करि,तब मेरा मन मांनैं ॥ ३०८ ॥

   मैं जन भूला तूं समझाइ।
   चित चंचल रहै न अटक्यौ,विपै बन कूं जाइ ॥ टेक ॥
“संसार मागर माहि भूल्यौ,थक्यौ करत उपाइ ।
मोहनीं माया बाघनी थैं,राखिलै रांम राइ ।।


( ३०८ )ख०--लहरी अंत न पारा ।