पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२७

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( १७ ) लिये परमात्मा के सगुण रूप की प्रतिष्ठा की गई, यदपि सिद्धांत रूप में ज्ञानमार्ग का त्याग नहीं किया गया । और तो और, तुलसी- दासजी तक ने ज्ञानमार्ग की बातों का निरूपण किया है, यद्यपि उन्होंने उन्हें गौण स्थान दिया है। संतों में भी कहीं कहीं अनजान में सगुणवाद पा गया है और विशेष कर कबीर में, क्योंकि भक्ति गुणों का आश्रय पाकर ही हो सकती है। शुद्ध ज्ञानाश्रयी उपनि- षदों तक में उपासना के लिये ब्रह्म में गुणों का आरोप किया गया है। फिर भी तथ्य की बात यह जान पड़ती है कि जब वैष्णव संप्रदाय ने आगे चलकर व्यवहार में सगुण भक्ति का प्राश्रय लिया, तब भो संत मतों ने ज्ञानाश्रयो निर्गुण भक्ति ही से अपना संबंध रग्वा । यहाँ पर यह कह देना उचित अँचता है कि कबीर सारतः वैष्णव थे। अपने आपको उन्होंने वैष्णव तो कहीं नहीं कहा है, परंतु वैष्णवों की जितनी प्रशंसा की है, उससे उनकी वैष्णवता का बहुत पुष्ट प्रमाण मिलता है- मेरे संगी वी जणा एक वैष्णव एक राम । वो है दाता मुक्ति का वो सुमिरावै नाम ॥ कबीर धनि ते सुंदरी जिनि जाया बैसनौ पूत । राम सुमिरि निरभै हुआ सब जग गया अऊत ॥ साकत बाभण मति मिलै बैसनौ मिलै चंडाल । . अंकमाल दे भेटिए मानौ मिलें गोपाल ॥ शात्तों की निंदा के लिये यह तत्परता उनकी वैष्णवता का ही फल है। शाक्त को उन्होंने कुत्ता तक कह डाला है- साकत सुनहा दूना भाई, एक नीदै एक भीकत जाई! जो कुछ संदेह उनकी वैष्णवता में रह जाता है, वह रामानंदजी को गुरु बनाने की उनकी आकुलता से दूर हो जाना चाहिए । अन्य वैष्णवों में और उनमें जो भेद दिखाई देता है उसका कारण,