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कबीर-ग्रंथावली

जे थे सचल अचल है थाके,करते बाद बिबाद ।
कहै कबीर मैं पूरा पाया,भया रांम परसादं ॥२८१॥

  अब क्या कीजै ग्यांन बिचारा,निज निरखत गत ब्यौहारा।टेक।
जाचिग दाता इक पाया,धन दिया जाइ न खाया ॥
कोई ले भरि सकै न मूका,औरनि पैं जानां चूका ।।
तिस बाझ न जीव्या जाई,वो मिलै त घालै खाई ।।
वो जीवन भला कहाई,बिन मूंवां जीवन नांहीं ।।
घसि चंदन बनखंडि बारा,बिन नैंननि रूप निहारा ॥
तिहि पूत बाप इक जाया,बिन ठाहर नगर बसाया ।।
को जीवत ही मरि जांनैं,तै। पंच सयल सुख मांनैं ।
कहै कबीर सो पाया,प्रभू भेटत आप गंवाया ॥ २८२ ।।

  अब मैं पायौ राजा रांम मनेही,
जा बिन दुख पावै मेरी देही ॥ टेक ॥
बेद पुरान कहत जाकी साखी,
तीरथि ब्रति न छूटे जंम की पासी ॥
जाथैं जनम लहत नर आगै,पाप पुनि दोऊ भ्रंम लागै ॥
कहै कबीर सोई तत जागा,
मन भया मगन प्रेम सर लागा ॥ २८३ ॥

विरहिनी फिरै है नाथ अधीरां ।
उपजि बिनां कछू समझि न परई,
वांझ न जांनैं पीरा ।। टेक ।।
या बड विथा साई भल जांनैं,रांम बिरह सर मारी।
कैसो जांनैं जिनि यहु लाई,कै जिनि चोट सहारी॥
संग की बिछुरो मिलन न पावै,सोच करै अरु काहै ।
जतन करै अरू जुगति विचारै,रटै रांम कूं चाहै ।