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कबीर-ग्रंथावली

गंगा मैं जे नीर मिलैगा,बिगरि बिगरि गंगादिक हैला।
कहै कबीर जे रांम कहैला,बिगरि बिगरि सो रांमहिं हैला ॥२७४॥

  रांम राइ भई बिकल मति मेरी,कै यहु दुनीं दिवांनीं तेरी॥टेक।।
जे पुजा हरि नाहीं भावै,सो पूजनहार चढ़ावै ॥
जिहि पूजा हरि भल मांनैं,सो पूजनहार न जांनैं ।।
भाव प्रेम की पूजा,ताथैं भयौ देव थैं दूजा ।।
का कीजै बहुत पसारा,पूजी जै पूजनहारा ।।
कहै कबीर मैं गावा,मैं गावा आप लखावा ।।
जो इहिं पद मांहिं समानां,सो पूजनहार सयांनां ।। २७५ ।।

  रांम राइ भई बिगूचनि भारी,
भले इन ग्यांनियन चैं संसारी ।। टेक ।।
इक तप तीरथ औगांहैं,इक मांनि महातम चांहैं ।।
इक मैं मेरी मैं बीझैं,इक अहंमेव मैं रीझैं ।
इक कथि कथि भरम लगांवैं,संमिता सी बस्त न पांवैं ।।
कहै कबीर का कीजै,हरि सूझै सो अंजन दीजै ।। २७६ ।।

  काया मंजसि कौन गुनां,घट भीतरि है मलनां ।। टेक ।।
जौ तूं हिरदै सुध मन ग्यांनी,तौ कहा बिरोलै पांनीं ॥
तूंबी अठ सठि तीरथ न्हाई,कड़वापण तऊ न जाई ।।
कहै कबीर बिचारी,भवसागर तारि मुरारी ।। २७७ ।।

  कैसैं तूं हरि कौ दास कहायौ,
करि बहु भेषर जनम गंवायौ ।। टेक ।।
सुध बुध होइ भज्यौ नहिं साई',काछयौ ड्यंभ उदर कै तांईं ॥
हिरदै कपट हरि सूं नहीं साचौ,कहा भयो जे अनहद नाच्यौ ।।