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कबीर-ग्रंथावली

  नैंक निहारि हो माया बीनती करै,
  दीन बचन बोलै कर जोरै,फुनि फुनि पाइ परै ॥ टेक ॥
कनक लेहु जेता मनि भावै,कांमनि लेहु मन-हरनीं ।
पुत्र लेहु विद्या-अधिकारी,राज लेहु सब धरनीं ॥
अठि सिधि लेहु तुम्ह हरि के जनां,नवैं निधि है तुम्ह आगैं ।
सुर नर सकल भवन के भूपति,तेऊ लहै न मांगैं ।।
तैं पापणी सबै संघारे,काकौ काज संवारयो ।
जिनि जिनि संग कियौ है तेरौ,को बेसासि न मारयौ ।।
दास कबीर रांम कै सरनैं,छाडी झूठी माया ।
गुर प्रसाद माध की संगति,तहां परम पद पाया।। २६६ ॥

  तुम्ह घरि जाहु हंमारी बहनां,विष लागैं तुम्हारे नैनां ।।टेक।।
अंजन छाडि निरंजन राते,नां किमहीं का दैनां ।
बलि जांउ ताकी जिनि तुम्ह पठई,एक माइ एक बहनां ।।
राती खांडी देखि कबीरा,देखि हमारा सिंगारो ।
सरग लोक थैं हम चलि आई,करन कबीर भरतारौ।। .
सर्ग लोक मैं क्या दुख पड़िया,तुम्ह आई कलि माहीं ।
जाति जुलाहा नाम कबीरा,अजहूं पतीजौ नांहीं ।।
तहां जाहु जहां पाट पटंबर,अगर चंदन घसि लीनां ।
आइ हमारै कहा करौगी,हम तौ जाति कमींनां ।।
जिनि हंम साजे साज्य निवाजे.वांधे काचै धागै ।
जे तुम्ह जतन करौ वहुतेरा,पांणी आगि न लागै ।।
साहिब मेरा लेखा मांगै,लेखा क्यूं करि दीजै ।
जे तुम्ह जतन करौ बहुतेरा,तौ पांहण नीर न भीजै ॥
जाकी मैं मछी सो मेरा मछा,सो मेरा रखवालू ।
टुक एक तुम्हारै हाथ लगाऊं,तौ राजा रांम रिसालु ।।