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कबीर-ग्रंथावली

भिस्त हुसकां दोजगां,दुंदर दराज दिवाल ।
पहनांम परदा ईत आतस,जहर जंगम जाल ।।
हम रफत रहबरहु समां,मैं खुर्दा सुमां बिसियार ।
हम जिमीं असमान खालिक,गुंद मुसिकल कार ।।
असमांन म्यांनैं लहंग दरिया,तहां गुसल करदा बूद ।
करि फिकर रह सालक जसम,जहां स तहां मौजूद ।।
हंम चु बूं दनि बूंद खालिक,गरक हम तुम पेस ।
कबीर पनह खुदाइ की,रह दिगर दावानेस ॥ २५८ ॥

  अलह रांम जीऊँ तेरे नांईं,
बंदे ऊपरि मिहर करौ मेरे सांईं ॥ टेक ।।
क्या ले माटी भुंइ सूं मारैं,क्या जल देह न्हवायें ।
जोर करै मसकीन सतावै,गुंन हीं रहें छिपायें ।।
क्या तु जू जप मंजन कीयें,क्या मसीति सिर नांयें ।
रोजा करैं निमाज गुजारैं,क्या हज काबै जांयें।
बांम्हंण ग्यारसि करै चौबीसौं,काजी महरम जांन ।
ग्यारह माल जुदे क्यूं कीयें,एकहि मांहि समान ।।
जौर खुदाइ मसीति बसत हैं,और मुलिक किस केरा ।
तीरथ मूरति रांम निवासा,दुहु मैं किनहूं न हेरा ॥
पूरिब दिसा हरी का बासा,पछिम अलह मुकांमां ।
दिल ही खोजि दिलै दिल भींतरि,इहां रांम रहिमांनां ।।
जेती औरति मरदां कहिये,सब मैं रूप तुम्हारा ।
कबीर पंगुड़ा अलह रांम का,हरि गुर पीर हमारा ॥ २५६ ।।

  मैं बड़ मैं बड़ मैं बड़ मांटी,
मण दसना जट का दस गांठी ।। टेक ।।


( २५६ ) ख०-सव मैं नूर तुम्हारा ।