पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२५९

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पदावली

खसम पिछांनि तरस करि जिय मैं,माल मनीं करि फीकी ।
आपा जांनि सांईं कूं जांनैं,तब है भिस्त सरीकी ॥
माटी एक भेष धरि नांनां,सब मैं ब्रह्म समानां ।
कहै कबीर भिस्त छिटकाई,दोजग ही मन मानां ॥ २५५ ॥

  अलह ल्यौ लांयें काहे न रहिये,
अह निसि केवल रांम नांम कहिये ।। टेक ।।
गुरमुखि कलमां ग्यांन मुखि छुरी,हुई हलाल पंचूं पुरी ।।
मन मसीति मैं किनहूं न जांनां,पंच पीर मालिम भगवांनाँ ।।
कहै कबीर मैं हरि गुंन गांऊं,हिंदू तुरक दाऊ समझाऊं।।२५६॥

  रे दिल खोजि दिल हर खोजि,नां परि परेसांनीं मांहिं।
  महल माल अजीज औरति,कोई दस्तगीरी क्यूं नांहि ॥टेक।।
पीरां मुरीदां काजियां,मुलां अरू दरवेस ।
कहां थे तुम्ह किनि कीये,अकलि है सब नेस ।।
कुरांना कतेबां अस पढि पढि,फिकरि या नहीं जाइ।
टुंक दम करारी जे करै,हाजिरां सुर खुदाइ ।।
दरोगां बकि बकि हूंहिं खुसियां,बे-अकलि बकहिं पुमांहिं ।
हक साच खालिक खालक म्यानै,सो कछु सच सुरति माहि ॥
अलह पाक तूं नापाक क्यूं,अब दूसर नांहीं कोइ ।
कबीर करम करीम का,करनीं करै जांनै सोइ ॥ २५७ ॥

  खालिक हरि कहीं दर हाल ।
  पंजर जसि करद दुसमन,मुरद करि पैमाल ॥ टेक ॥


(२५७) क०.प्रति में आठवीं पंक्ति का पाठ इस प्रकार है-
     साचु खलक स्वालक,सैल सूरति मांहि ॥