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कबीर-ग्रंथावली

  हरि बिन झूठे सब ब्यौहार,केते कोऊ करौ गंवार ।।टेक।।
झूठा जप तप झूठा ग्यांन,रांम रांम बिन झूठा ध्यांन ॥
बिधि न खेद पूजा आचार,सब दरिया मैं बार न पार ।।
इंद्री स्वारथ मन के स्वाद,जहां साच तहां मांडै बाद ॥
दास कबीर रह्या ल्यौ लाइ,भर्म कर्म सब दिये बहाइ ॥२५२॥

   चेतनि देखै रे जग धंधा।
   रांम नांम का मरम न जांनै,माया कै रसि अंधा ।। टेक ॥
जनमत हीरू कहा ले आयौ,मरत कहा ले जासी ।
जैसे तरवर बसत पंखेरू,दिवस चारि के बासी ॥
आपा थापि अवर कौ निंदैं,जन्मत हीं जड़ काटी ।
हरि की भगति बिनां यहु देही,धब लोटै ही फाटी ।।
कांम क्रोध मोह मद मछर,पर-अपवाद न सुणियें ।
कहै कबीर साध की संगति,रांम नांम गुन भणि ये ।। २५३ ॥

   रे जम नांहि नवै व्यौपारी,जे भरैं जगाति तुम्हारी ॥टेक।।
बसुधा छाडि बनिज हम कीन्हों,लाद्यो हरि कौ नांऊं :
रांम नांम की गूंनि भराऊं,हारे के टांडै जांऊं ।।
जिनकै तुम्ह अगिवानीं कहियत,सो पूंजी हंम पासा ।
अबै तुम्हारौ कछु बल नांहीं,कहै कबीरा दासा ॥ २५४ ।।

   मींयां तुम्ह सौं बोल्यां बणि नहीं आवै।
   हम मसकीन खुदाई बंदे,तुम्हरा जस मनि भावै ।। टेक ॥
अलह अवलि दीन का साहिब,जोर नहीं फुरमाया ।
मुरिसद पीर तुम्हारै है को,कहौ कहां थैं आया ।।
रोजा करैं निवाज गुजारैं,कल मैं भिसत न होई ।
सतरि काबे इक दिल भींतरि,जे करि जानैं कोई ।।