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कबीर-ग्रंथावली

 कौंण कौंण गया रांम कौंण कौंणन जासी,
पड़सी काया गढ़ माटी थासी ॥ टेक ॥
इंद्र सरीखे गये नर कोड़ी,पांचों पांडौं सरिषी जोड़ी।
धू अबिचल नहीं रहसी तारा,चंद सूर की आइसी बारा ॥
कहै कबीर जग देखि संसारा,पड़सी घट रहसी निरकारा।।२४७||

 ताथैं सेविये नारांइणां,
प्रभू मेरौ दीन दयाल दया करणा ।। टेक ।।
जौ तुम्ह पंडित आगम जांणौं,विद्या व्याकरणां ।
तंत मंत सब ओषदि जांणौं,अंति तऊ मरणां ॥
राज पाट स्य घासण पासण, बहु सुदरि रमणां ।
चंदन चीर कपुर बिराजत,अंति तऊ मरणां ।।
जोगी जती तपी संन्यासी,बहु तीरथ भरमणां ।
लुंचित मुंडित मानि जटाधर,अंति तऊ मरणां॥
सोचि बिचारि सबै जग देख्या,कहूं न ऊपरणां ।
कहै कबीर सरणाई आयौं,मेटि जामन मरणां ॥ २४८ ॥

 पांडे न करसि वाद विवादं,
या दही बिन सबद न स्वादं ।। टेक ॥
अंड ब्रह्मंड खंड भी माटो.माटी नवनिधि काया ।
माटी खोजत मतगुर भेट्या,तिन कछू मलख लखाया ॥
जीवत माटो मूवा भी माटो,देखौं ग्यांन बिचारी ।
अंति कालि माटी मैं बासा,लेटै पांव पसारी ॥
माटो का चित्र पवन का थंभा,व्यंद सँ जोगि उपाया।
भांनैं घड़ै संवारै सोई,यहु गोध्यंद की माया ।।
माटी का मंदिर ग्यान का दीपक,पवन बाति.उजियारा ।
तिहि उजियारै सब जग सूझै,कबीर ग्यांन विचारा ॥ २४६ ।