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कबीर-ग्रंथावली

 सेजैं रहूं नैंन नहीं देखौं,
यहु दुख कासौं कहूं हो दयाल ॥ टेक ।।
सासु की दुखी सुसर की प्यारी,जेठ कै तरसि डरौं रे ।
नणद सुहेली गरब गहेली,देवर कै बिरह जरौं हो दयाल ।।
बाप सावकौ करै लराई,माया सद मतिवाली ।।
सगौ भईया लै सलि चढ़िहूँ,तब है हूं पीयहि पियारी ।।
सोचि बिचारि देखौ मन मांहीं,औसर आइ बन्यूं रे ।
कहै कबीर सुनहुं मति सुंदरि,राजा रांम रमूं रे ।। २३० ।।

 अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी,ताथैं भई पुरिष थैं नारी ॥टेक॥
नां हूं परनीं नां हूं कारी,पूत जन्यूं द्यौ हारी ।
काली मूंड कौ एक न छोड्यौ,अजहूं अकन कुवारी ॥
बाम्हन कै बम्हनेटी कहियौं,जोगी कै घरि चेली।
कलमां पढि पढि भई तुरकनीं,अजहूं फिरौं अकेली ॥
पीहरि जांऊं न रहूं सासुरै,पुरषहि अंगि न लांऊं ।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ,अंगहि अंग न छुवांऊं ॥ २३१ ॥ .

 मींठी मींठी माया तजी न जाई,
अग्यांनीं पुरिष कौं भोलि भोलि खाई ॥ टेक ॥
निरगुंण सगुंण नारी,संसारि पियारी,
लषमणि त्यागी गोरषि निवारी ॥
कीड़ी कुंजर मैं रही समाई,
तीनि लोक जीत्या माया किनहूं न खाई ।।
कहै कबीर पद लेहु बिचारी,
संमारि आइ माया किनहूं एक कहीं षारी ॥२३२॥

(२३१) ख०-पून जने जनि हारी।