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कबीर-ग्रंथावली

 
मुद्रां पहरयां जोग न होई,
घूंघट काढ्यां सती न कोई ॥
माया कै सँगि हिलि मिलि आया, ।'
फोकट साटै जनम गँवाया।
कहै कबीर जिनि हरिपद चीन्हां,
मलिन प्यंड थैं निरमल कीन्हां ॥ २१७ ॥


  है कोई रांम नांम बतावै,बस्त अगोचर मोहि लखावै ।।टेक।।
रांम नाम सब कोई बखांनै,रांम नांम का मरम न जानैं ॥
ऊपर की मोहि बात न भावै,देखै गावै तैा सुख पावै ।
कहै कबीर कछु कहत न पावै,परचै बिना मरम को पावै ।।२१८।।

  गोब्यं दे तूं निरंजन तूं निरंजन तूं निरंजन राया ।
  तेरे रूप नांहीं रख नांहीं मुद्रा नहीं माया ।। टेक ।।
समद नांहीं सिषर नांही,धरती नहों गगनां ।
रवि ससि दोउ एकै नांही,बहत नांहीं पवनां ।।
नाद नांही व्यंद नांही,काल नहीं काया ।
जब तैं जल व्यंब न होते,तब तूंही रांम राया।
जप नांहीं तप नांहीं,जोग ध्यांन नहीं पूजा ।
सिव नांहीं सकति नांही,देव नहीं दूजा ॥
रुग न जुग न स्यांम अथरबन,बेद नहीं व्याकरनां ।
तेरी गति तूं ही जांनैं',कबीरा तो सरनां ॥ २१६ ।।

  रांम कै नांइ नींसांन बागा,ताका मरम न जांनैं कोई ।
 "भूख त्रिषा गुण वाकै नांही,घट घट अंतरि सोई । टेक ।।
बेद विवर्जित भेद विवर्जित,विवर्जित पाप रु पुंन्यं।
ग्यांन विवर्जित ध्यांन विवर्जित,विषर्जित अस्थल सुंन्यं ॥