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कबीर-ग्रंथावली

जब थैं इनमन उनमन जांनां,तब रूप न रेष तहां ले बांनां ॥
तन मन मन तन एक समांनां,इन अनभै मांहैं मन मांनां। .
आतमलीन अषंडित रांमां,कहै कबीर हरि मांहि समांनां ॥२०३॥

  आत्मां अनंदी जोगी,पीवै महारस अंमृत भोगी ॥ टेक ॥
ब्रह्म अगनि काया परजारी,अजपा जाप उनमनों तारी ।।
त्रिकुट कोट मैं आसण मांडै,सहज समाधिं विषै सब छांडै ॥
त्रिबेंणी विभूति करै मन मंजन,जन कबीर प्रभू मलष निरंजन२०४

  या जोगिया की जुगति जु बूझै,
रांम रमैं ताकौं त्रिभुवन सूझै ।। टेक ॥
प्रगट कंथा गुपत अधारी,तामैं मूरति जीवनि प्यारी ॥
है प्रभू नेरै खोजैं दूरि,ग्यांन गुफा मैं सींगी पूरि ।।
अमर बेलि जो छिन छिन पीवै,कहै कबीर सो जुगि जुगि जीवै२०५

  सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा,
राति दिवस न करई निद्रा ॥ टेक ॥
मन मैं आसण मन मैं रहयां,मन का जप तप मन सूं कहयां ॥
मन मैं षपरा मन मैं सींगो,अनहद बेन बजावै रंगी।
पंच परजारि भसम करि भूका,कहै कबीर सो सहसै लंका २०६

  बाबा जोगी एक अकेला,जाकै तीर्थ व्रत न मेला ॥ टेक ॥
झोली पत्र विभूति न बटवा,अनहद बेन बजावै ।
मांगि न खाइ न भूखा सोवै,घर अंगनां फिरि आवै ॥
पांच जनां की जमाति चलावै,तास गुरू मैं चेला ।
कहै कबीर उनि देसि सिधाये,बहुरि न इहि जगि मेला ॥२०७॥