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पदावली

रांणां राव कवन सूं कहिये,कवन बैद को रोगी ।
इनमैं आप आप सबहिन मैं,आप आपसूं खेलै ।
नांनां भांति घड़े सब भाँडे,रूप धरे धरि मेलै ।
सोचि बिचारि सबै जग देख्या,निरगुंण कोई न बतावै ।
कहै कबीर गुंणीं अरु पंडित,मिलि लीला जस गावै ॥ १८६ ॥

  तू माया रघुनाथ की,खेलण चढ़ी अहेड़ै।
  चतुर चिकारे चुणि चुणि मारे,कोई न छोड्या नेड़ै।।टेक।
मुनियर पीर डिगंबर मारे,जतन करंता जोगी ।
जंगल महि के जंगम मारे,तूंर फिरै बलिवंती ।।
बेद पढ़ंता बांम्हण मारा,सेवा करतां स्वांमीं ।
अरथ करतां मिसर पछाड्या,तूंर फिरै मैं मंती ।।
साषित कै तूं हरता करता,हरि भगतन कै चेरी।।
दास कबीर रांम कै सरनैं,ज्यूं लागी त्यूं तोरी ।। १८७ ॥

  जग सूं प्रीति न कीजिये,संमझि मन मेरा ।
  स्वाद हेत लपटाइए,को निकसै सूरा ॥ टेक ॥
एक कनक अरु कांमनीं,जग मैं दोइ फंदा ।
इनपै जौ न बंधावई,ताका मैं बंदा ॥
देह धरें इन मांहि बास,कहु कैसैं छूटै ।
सीव भये ते ऊबरे,जीवत ते लूटे ।।
एक एक सूं मिलि रह्या,तिनहीं सचुपाया।
प्रेम मगन लै लीन मन,सो बहुरि न आया ।।
कहै कबीर निहचल भया,निरभै पद पाया ।
संसा ता दिन का गया,सतगुर समझाया ॥ १८८॥


(१८७)ख०-तू माया जगनाथ की।