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कबीर-ग्रंथावली

है हांजिर परतीति न आवै,सो कैसैं परताप धरै ।।
ज्यूं सुख त्यूं दुख द्रिढ़ मन राखै,एकादसी इकतार करै।
द्वादसी भ्रमैं लष चौरासी,गर्भ बास आंवै सदा मरै ॥
मैं तैं तजै तजै अपमारग,चारि बरन उपरांति चढै ।
ते नहीं डूबै पार तिरि लंघै,निरगुण अगुण संग करै ।
होइ मगन रांम रॅगि राचै,आवागवन मिटै धापै ।
तिनह उछाह सोक नहीं व्यापै,कहै कबीर करता आपै ॥१८३॥

  तेरा जन एक आध है कोंई।
  काम क्रोध अरु लोभ बिवर्जित,हरिपद चीन्हैं सोई ॥टेक।।
राजस तांमस सातिग तीन्यूं,ये सब तेरी माया ।
चौथै पद कौं जे जन चीन्हैं,तिनहि परम पद पाया ।।
असतुति निंद्या आसा छांडै,तजै मांन अभिमांनां ।
लोहा कंचन समि करि देखै,ते मूरति भगवानां ।।
च्यंतै तौ माधौ च्यंतामणिं,हरिपद रमैं उदासा।
त्रिस्नां अरु अभिमांन रहित है,कहै कबीर सो दासा ॥ १८४ ॥

  हरि नांमैं दिन जाइ रे जाकौ,
सोई दिन लेखै लाइ रांम ताकौ ।। टेक ॥
हरि नांम मैं जन जागै,ताकै गोव्यंद साथी आगै ॥
दीपक एक अभंगा,तामैं सुर नर पड़ैं पतंगा ।
ऊंच नीच सम सरिया,ताथैं जन कबीर निसतरिया ॥१८५॥

  जब थैं आतम-तत विचारा।
  तब निरबैर भया सबहिन थैं,कांम क्रोध गहि डारा।।टेक॥
ब्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै,को पंडित को जोगी।
(१८४) ख.-जे जम जानैं । लोहा कंचन सम करि जानैं ।