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पदावली

कहै कबीर बिचार बिचारी,तिल मैं मेर समांनां ।
अनेक जनम का गुर गुर करता,सतगुर तब भेटांनां ॥१७४॥

  अवधू ऐसा ग्यान विचारं।
  मेरै चढे सु अधधर डूबे,निराधार भये पार ॥ टेक ॥
ऊघट चले सु नगरि पहूंते,बाट चले ते लूटे ।
एक जेवड़ी सब लपटानें,के बांधे के छूटे ॥
मदिर पैसि चहूँ दिसि भीगे,बाहरि रहे ते सूका ।
सरि मारे ते सदा सुखारे,अनमारे ते दूषा ।
बिन नैंनन के सब जग देखै,लोचन अछते अंधा ।
कहै कबीर कछु समझि परी है,यहु जग देख्या धंधा ॥१७५॥

  जग धंधा रे जग धंधा,सब लोगन जांणैं अंधा।
  लोभ मोह जेवड़ी लपटानीं,बिनही गांठि गयो फंधा ॥टेक॥
ऊंचै टीबै मछ बसत है,ससा बसै जल मांहीं ।
परबत ऊपरि लोक डूबि मूबा,नीर मूवा धूं कांहीं॥
जलै नीर तिण षड सब उबरै,बैसंदर ले सींचै ।
ऊपरि मूल फूल तिन भीतरि,जिनि जान्यां तिनि नीकै ॥
कहै कबीर जांनहीं जांनै',अन-जांनत दुख भारी ।
हारी बाट बटाऊ जीत्या,जांनत की बलिहारी ॥ १७६ ॥

  अवधू ब्रह्म मतै घरि जाइ।
  काल्हि जु तेरी बंसरिया छीनीं,कहा चरावै गाइ ॥ टेक ॥
तालि चुगैं बन तीतर लउवा,परवति चरै सौरा मछा ।
बन की हिरनीं कूवै बियांनी,ससा फिरै अकासा ॥
ऊंट मारि मैं चारै लावा,हस्ती तर डबा देई ।