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कबीर-ग्रंथावली

कह्या चाहूं कछू कह्या न जाइ,जल जीव है जल नहीं बिगराइ ।।
सकल आतमां बरतै जे,छल बल को सब चीन्हि बसे ।।
चीनियत चीनियत ता चीन्हिलै से,तिहि चीन्हिअत धूं का करके।।
आपा पर सब एक समांन,तब हम पाया पद निरबांण ॥
कहै कबीर मन्य भया संतोष,मिले भगवंत गया दुख दोष ॥१६७॥

  अंतर गतिअनि अनि बांणीं ।।
  गगन गुपत मधुकर मधु पीवत,सुगति सेस सिव जांणीं ॥टेक।।
त्रिगुण त्रिबिधि तलपत तिमरातन,तंती तंत मिलांनीं ।
भागे भरम भोइन भये भारी,बिधि बिरंचि सुषि जांणी ।।
बरन पवन अबरन बिधि पावक,अनल अमर मरै पांणी ।
रवि ससि सुभग रहे भरि सब घटि,सबद सुंनि थिति मांहीं ॥
संकट सकति सकल सुख खोये,उदिध मथित सब हारे ।
कहै कबीर अगम पुर पटण,प्रगटि पुरातन जारे ॥१६८।।

  लाधा है कछू लाधा है,ताकी पारिष को न लहै।
  अबरन एक अकल अबिनासी,घटि घटि आप रहै ॥ टेक ॥
तोल न मोल माप कछु नांहीं,गिणंती ग्यांन न होई। ' .
नां सो भारी नां सो हलवा,ताकी पारिष लषै न कोई ॥
जामैं हम सोई हम ही मैं,नीर मिलें जल एक हूवा ।
यौं जांणैं तौ कोई न मरिहै,बिन जांणैं थैं बहुत मूवा ।।
दास कबीर प्रेम रस पाया,पीवणहार न पाऊं ।
विधनां बचन पिछांणत नाहीं,कहु क्या काढ़ि दिखाऊं ॥१६६॥

  हरि हिरदै रे अनत कत चाहौ,
भूलै भरम दुनीं कत बाहै। ॥ टेक ॥
जग परबोधि होत नर खाली,करते उदर उपाया ।
आत्म रांम न चीन्है संतौ,क्यूं रमि लै रांम राया ।।