पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२२६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४२
कबीर-ग्रंथावली

बैठि गुफा मैं सब जग देख्या,बाहरि कछू न सूझै ।
उलटै धनकि पारधी मारयो,यहु अचिरज कोइ बूझै ॥
औंधा घड़ा न जल मैं डुबै,सुधा सूभर भरिया।
जाकौं यहु जग घिण करि चालै, शता प्रसादि निस्तरिया ।
अंबर बरसै धरती भीजै,यहु जांणैं सब कोई ।
धरती बरसै अंबर भीजै,बूझै बिरला कोई ॥
गांवणहारा कदे न गावै,अणबोल्या नित गावै ।
नटवर पेषि पेषना पेपै,अनहद बेन बजावै ॥
कहणीं रहणीं निज तत जांणैं,यहु सब अकथ कहाणीं ।
धरती उलटि अकासहि ग्रासै,यहु पुरिसां की बांणीं ।।
बाझ पियालै अंमृत सोख्या,नदी नीर भरि राष्या ।
कहै कबीर ते बिरला जोगी,धरणि महारस चाष्या ।। १६२॥

  रांम गुन बेलड़ी रे,अवधू गोरषनाथि जांणीं ।
  नाति सरूप न छाया जाकै,बिरध करै बिन पांणीं ॥ टेक ॥
बेलड़िया द्वैं अणीं पहुंती,गगन पहुंती सैली ।
सहज बेलि जब फूलण लागी,डालो कूपल मेल्ही ।।
मन कुंजर जाइ बाड़ी बिलंव्या,सतगुर बाही बेली ।
पंच सखी मिलि पवन पयंप्या,बाड़ी पांणीं मेल्ही ।।
काटत बेली कूपले मेल्हीं,सींचताड़ीं कुमिलांणीं ।
कहै कबीर ते बिरला जोगी,सहज निरंतर जाणीं ॥१६३।।

  रांम राइ अबिगत बिगति न जानं,
कहि किम ताहि रूप बषानं ॥ टेक ।।
प्रथमे गगन कि पुहमि प्रथमे प्रभू,प्रथमे पवन कि पांणीं ।
प्रथमे चंद कि सुर प्रथमे प्रभू,प्रथमे कौंन बिनांणीं ॥


(१६३)ख०-जाति सिमूल न छाया जाकै।