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कबीर-ग्रंथावली

प्रांन पुरिस काया थैं बिछुरै,राखि लेहु गुर चेला ॥
भागा भर्म भया मन असथिर,निद्रा नेह नसांनां ।
घट की जोति जगत प्रकास्या,माया सोक बुझांनां ।।
बंकनालि जे संमि करि राखै,तौ भावागमन न होई ।
कहै कबीर धुनि लहरि प्रगटी,सहजि मिलैगा सोई ॥ १५७ ॥

  जाइ पूछौ गोबिंद पढ़िया पंडिता,तेरा कौंन गुरू कौंन चेला।
  अपणें रूप कौं आपहि जांणैं,आपैं रहै अकेला ॥ टेक ॥
बांझ का पूत बाप बिना जाया,बिन पांऊं तरवरि चढ़िया।
अस बिन पाषर गज बिन गुड़िया,बिन षंडै संग्रांम जुड़िया ।।
बीज बिन अंकूर पेड़ बिन तरवर,बिन साषा तरवर फलिया।
रूप बिन नारी पुहप बिन परमल, बिन नीरै सरवर भरिया ।।
देव बिन देहुरा पत्र धिन पूजा,बिन पांषां भवर बिलंबिया ।
सुरा होइ सु परम पद पावै,कीट पतंग होइ सब जरिया ।।
दीपक बिन जोति जोति बिन दीपक,हद बिन अनाहद सबद बागा।
चेतनां होइ सु चेति लीज्यौ,कबीर हरि के अंगि लागा ।। १५८ ।।

  पंडित होइ सु पदहि बिचारै,मूरिष नांहिन बूझै ।
  बिन हाथनि पांइन बिन कांननि,बिन लोचन जग सूझै ॥टेक॥
बिन मुख खाइ चरन बिन चालै,बिन जिभ्या गुण गावै ।
आछै रहै ठौर नहीं छाड़ै,दह दिसिहीं फिरि आवै ॥
बिनहीं तालां ताल बजावै,बिन मंदल पट ताला ।
बिनहीं सबद अनाहद बाजै,तहां निरतत है गोपाला ॥
बिनां चोलनैं बिनां कंचुकी,बिनहीं संग संग होई ।
दास कबीर औसर भल देख्या,जांनैंगा जन कोई ॥ १५६ ॥