तेज पवन मिलि पवन सबद मिलि,सहज समाधि लगांविहिगे॥
जैसें बहुकंचन के भूषन,ये कहि गालि तवांवहिगे ।
ऐसैं हम लोक बेद के बिछुरें,सुंनिहि मांहिं समांवहिगे ॥
जैसैं जलहि तरंग तरंगनीं,ऐसैं हम दिखलांवहिगे।
कहै कबीर स्वांमीं सुख सागर,हंसहि हंस मिलांवहिगे ॥१५०।।
कबीरौ संत नदी गयौ बहि रे ।
ठाढ़ी माइ कराडै टेरै,है कोई ल्यावै गहि रे ॥ टेक ॥
बादल बांनीं रांम घन उनयां,बरिषै अंमृत धारा ।
सखी नीर गंग भरि आई,पीवै प्रांन हमारा ॥
जहां बहि लागे सनक सनंदन,रुद्र ध्यांन धरि बैठे।
सुयं प्रकास आनंद बमेक मैं,घन कबीर है पैठे ॥१५॥
अवधू कांमधेन गहि बांधी रे ।
भांडा भंजन करै सबहिन का,कछु न सूझै आंधी रे ॥टेक॥
जौ ब्यावै तौ दूध न देई,ग्याभण अंमृत सरवै ।
कौली घाल्यां बीडरि चाले,ज्यूं घेरौं त्यूं दरवै ॥
तिहिं धेन थैं इंछपा पूगी,पाकड़ि खूंटै बांधी रे ।
ग्वाड़ा मांहैं आनंद उपनौं,खुंटै दोऊ बांधी रे ।।
साईं माइ सास पुनि साई,साई याकी नारी ।
कहै कबीर परम पद पाया,संतौ लेहु बिचारी ।। १५२ ॥
[राग रामकली]
जगत गुर अनहद कींगरी बाजै,तहां दीरघ नाद ल्यौ लागै ।टेका
त्री प्रस्थांन अंतर मृगछाला,गगन मंडल सींगीं बाजै।
(१२) ख०-साई घर की नारी।