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पदावली

का काजल स्यं दूर कै दीयैं,
सोलह स्यंगार कहा भयौ कीयैं ।
अंजन मंजन करै ठगौंरी,
का पचि मरै निगोड़ी बौरी ॥
जौ पैं पतिव्रता हैं नारी,
कैसें हीं रहौ सो पियहि पियारी ॥
तन मन जोवन सौंपि सरीरा,
ताहि सुहागनि कहै कबीरा ॥ १३ ॥

 दूभर पनियां भरया न जाई,
अधिक त्रिषा हरि बिन न बुझाई ॥ टेक ॥
ऊपरि नीर ले ज तलि हारी,
कैसैं नीर भरै पनिहारी ॥
उधरयौ कूप घाट भयौ भारी,
चली निरास पंच पनिहारी ॥
गुर उपदेस भरी ले नीरा,
हरषि हरषि जल पीवै कबीरा ॥ १४०॥

 कहौ भईया अंबर कासूं लागा,
कोई जांणैंगा जांननहार सभागा ॥ टेक ॥
अंबरि दीसै केता तारा,कौंन चतुर ऐसा चितरनहारा ॥ ·
जे तुम्ह देखौ सो यहु नांहीं यहु पद अगम अगोचर मांहीं॥
तीनि हाथ एक अरधाई,ऐसा अंबर चीन्हौ रे भाई॥
कहै कबीर जे अंबर जानैं,ताही सूं मेरा मन मांनैं ॥ १४१ ॥

(१४०) ख०-अल बिन न बुझाई।