पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२१३

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पदावली १२६

विषिया सुख कै कारनैं',जाइ गनिका सुं प्रीति लगाई।
अंधै भागि न सूझई,पढ़ि पढ़ि लोग बुझाई ।
एक जनम कै कारणैं ,कत पूजौ देव सह सौं रे ।
काहे न पूजौ रांम जी,जाकी भगत महेसौ रे ॥
कहै कबीर चित चंचला,सुनहू मूंढ मति मारी।
विषिया फिरि फिरि पावई,राजा रांम न मिलै बहोरी ॥१२७॥

 रांम न जपहु कहा भयौ अंधा,
रांम बिना जंम मेलै फंधा ॥ टेक ।।
सुत दारा का किया पसारा,अंत की बेर भये बटपारा ॥
माया ऊपरि माया मांडी,साथ न चलै पोषरी हांडी ॥
जपौ रांम ज्यूं अंति उबारै,ठाढी बांह कबीर पुकारै ॥१२८।।

 डगमग छाड़ि दे मन बौरा।
 अब तो जरें बरें बनि आवै,लीन्हों हाथ सिंधौरा ॥ टेक
होइ निसंक मगन है नाचौ,लोभ मोह भ्रम छाड़ौ ।
सूरौ कहा मरन थैं डरपै,सती न संथैं भांडौ ॥
लोक बेद कुल की मरजादा,इहै गलै मैं पासी ।
आधा चलि करि पोछा फिरिहै, है है जग मैं हासी ।
यहु संसार सकल है मैला,रांम कहैं ते सूचा ।
कहै कबीर नाव नहीं छाडौं,गिरत परत चढ़ि ऊँचा ॥१२॥
(१२७)इसके आगे ख० प्रति में यह पद है-
राम न जपहु कवन भ्रम लागै।
मरि जाहहुगे कहा कहा करहु अभागे ॥ टेक ॥
 रांम नांम जपहु कहा करौ वैसे,भेड कसाई के घरि जैसे ॥'
 रांम न जपहु कहा गरबाना,जम के घर भागैं है जाना ॥
 रांम न जपहु कहा मुसको रे,जम के मुदगरि गणि गणि खहु रे॥
 कहै कबीर चतुर के राइ,चतुर बिना को नरकहि जाइ॥ १३॥