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कबीर-ग्रंथावली

जिहिं घटि रांम रहे भरपूरि,ताकी मैं चरनन की धूरि ।।
जांति जुलाहा मति कौ धीर,
हरषि हरषि गुंण रमैं कबीर ॥१२४।।
जा नरि रांम भगति नहीं साधी,
सो जनमत काहे न मूवौ अपराधी ।।टेका।।
गरभ मुचे मुचि भई किन बांझ,
सूकर रूप फिरै कलि मांझ ।।
जिहि कुलि पुत्र न ग्यांन बिचारी,
वाकी विधवा काहे न भई महतारी ।।
कहै कबीर नर सुंदर सरूप,
रांम भगति बिन कुचल करूप ॥१२॥

रांम बिना ध्रिग ध्रिग नर नारी,
कहा तैं आइ कियौ संसारी ॥ टेक ।।
रज बिनां कैसौ रजपूत,
ग्यांन बिना फोकट अवधूत ॥
गनिका कौ पूत पिता कासौं कहै,
गुर बिन चेला ग्यांन न लहै ।।
कवारी कंन्यां करै स्यंगार,
सोभ न पावै बिन भरतार ।।
कहै कबीर हूँ कहता डरू',
सुषदेव कहै तो मैं क्या करौं ॥१२६॥

जरि जाव ऐसा जीवनां,राजा राम सूं प्रीति न होई ।
जन्म अमोलिक जात है,चेति न देखै कोई ।। टेक ॥
मधुमाषी धन संग्रहै,मधुवा मधु ले जाई रे ।
गयौ गयौ धंन मूंढ जनां,फिरि पीछैं पछिताई रे ॥