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कबीर-ग्रंथावली

सूर सिध जब भेटिये,तब दुख न ब्यापै कोइ ।
बोछै जलि जैसैं मछिका,उदर न भरईं नीर ।
त्यूं तुम्ह कारनि केसवा,जन ताला बेंली कबीर ॥ ११६॥

 रांम बिन तन की ताप न जाई.
जल मैं अगनि उठी अधिकाई ॥ टेक ।।
 तुम्ह जलनिधि मैं जल कर मीनां,
जल मैं रहैं। जलहिं बिन षींनां ।
 तुम्ह प्यंजरा मैं सुवनां तोरा,
दरसन देहु भाग बड़ मोरा ॥
तुम्ह सतगुर मैं नौतम चेला,
कहै कबीर रांम रमूं अकेला ॥ १२० ॥

 गोव्यांदा गुंण गाईये रे,ताथैं भाई पाईये परम निधांन ॥टेका।
ऊंकारे जग ऊपजै,बिकारे जग जाइ ।
अनहद बेन बजाइ करि,रह्यो गगन मठ छाइ ।
झूठे जग डहकाइया रे,क्या जीवण की आस ।
रांम रसांइण जिनि पीया,तिनिकौं बहुरि न लागी रे पियास ॥
अरध पिन जीवन भला,भगवंत भगति सहेत ।
कोटि कलप जीवन ब्रिथा,नाहिन हरि सूं हेत ॥
संपति देखि न हरषिये,विपति देषि न रोइ।
ज्यूं संपति त्यूं विपति है,करता करै सु होइ ॥
सरग लोक न बांछिये,डरिये न नरक निवास ।
हूंणां था सो है रह्या,मनहु न कीजै झूठी आस ॥
क्या जप क्या तप संजमां,क्या तीरथ ब्रत अस्नान ।
जौ पैं जुगति न जांनियै,भाव भगति भगवान ॥