पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२०६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२२
कबीर-ग्रंथावली

हड़ हड़ हड़ हड़ हसती है,दिवांनपनां क्या करती है।
आडी तिरछी फिरती है,क्या च्यौं च्यौं म्यों म्यों करती है।।टेक।।
क्या तूं रंगी क्या तू चंगी,क्या सुखं लोड़ै कीन्हां ।
मीर मुकदम सेर दिवांनीं,जंगल केर पजीनां ।
भूले भरमि कहा तुम्ह राते,क्या मदुमाते माया ।
रांम रंगि सदा मतिवाले,काया होइ निकाया ।।
कहत कबीर सुहाग सुंदरी,हरि भजि है निस्तारा ।
सारा पलक खराब किया है,मांनस कहा बिचारा ॥ १०६ ।।

हरि कै नांइ गहर जिनि करऊं,रांम नांम चित मुखां न धरऊं ।टेक।
जैसें सती तजै स्यंगार,ऐसैं जीयरा करम निवार ॥ .
राग दोष दहूँ मैं एक न भाषि,कदाचि ऊपजै तौ चिता न राषि ।।
भूलै बिसरय गहर जौ होई,कहै कबीर क्या करिहैा मोही ॥१०७॥

  मन र कागद कीर पराया।
कहा भयौ ब्यौपार तुम्हारै,कल तर बढ़ै सवाया ।। टेक ।।
बडै बौहरै सांठी दीन्हौं,कल तर काठ्यौ खोटै।
चार लाप अरू असी ठीक दे,जनम लिष्यौ सब चोटै ।
अब की वेर न कागद कीरयौ,तौ धर्म राइ सूं तूटै।
पूंजी बितड़ि बंदि लै दैहै,तब कहै कौंन के छूटै ।।
गुरदेव ग्यांनी भयौ लगनियां,सुमिरन दीन्हौं हीरा ।
बड़ी निसरनी नांव रांम कौ,चढ़ि गयौ कीर कबीरा ॥ १०८ ॥

  धागा ज्यूं टूटै त्यूं जोरि।
तूटै तुटनि होयगी,नां ऊँ मिलै बहोरि ॥ टेक ।।
उरझयो सूत पांन नहीं लागै,कूच फिरै सब लाई ।