प्रानंद सहत तजा बिष नारी,
अब क्या झी पतित भिषारी ।।
कहै कबीर यहु सुख दिन चारि,
तजि बिषिया भजि चरन मुरारि ॥ ८७ ॥
जियरा जाहि गा मैं जानां ।।
जो देख्या सो बहुरि न पेप्या, माटी सू लपटांनां ।। टेक ,
बाकुल बसतर किता पहरिबा, का तप बनलंडि बामा ।
कहा मुगधरे पाहन पूज, काजल डारै गाता ।।
कहै कबीर सुर मुनि उपदेसा, लोका पंथि लगाई ।
सुनौं संता सुमिरी भगत जन, हरि बिन जनम गवाई ।। ८८॥
हरि ठग जग को ठगारी लाई,
. हरि कै बियोग कैसे जीऊँ मेरी माई ।। टेक ॥
कौन पुरिष को काकी नारी,
अभि-अंतरि तुम्ह लेहु बिचारी ।।
कौन पूत को काकी बाप,
कौन मरै कौन करै संताप ॥
कहै कबीर ठग सौ मनमानां,
गई ठगौरी ठग पहिचांनां ।। ८६ ॥
साई मेरे साजि दई एक डोली,
हस्त लोक अरू मैं तें बोली ।। टेक ।।
इक झंझर सम सूत खटोला,
त्रिस्ना वाव चहूँ दिसि डोला ।।
पांच कहार का मरम न जाना,
एकै कह्या एक नहीं मानां ॥
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कबीर-ग्रंथावली