होत उजाड़ सबै कोई जानै, सब काहू मनि भावै ।
कहै कबीर मिलै जे सतगुर, तो यहु चून छुड़ावै ॥८१॥
बिषिया अजहूं सुरति सुख प्रासा,
हूंण न देइ हरि के चरन निवासा ॥ टेक ॥
सुख मांगै दुख पहली प्रावै, ताथै सुख मांग्या नहीं भावै ।।
जा सुख थें सिव बिरचि उरांना, सो सुख हमहु साच करि जाना।।
सुखि छाड्या तब सब दुख भागा, गुर के सबद मेरा मन लागा॥
निस बासुरि बिपैतनां उपगार, विषई नरकि न जातां बार ।।
कहै कबीर चंचल मति त्यागी, तब केवल राम नाम ल्यौ लागी ॥२॥
तुम्ह गारड़ में विष का माता,
काहे न जिवावै। मेरे अंमृतदाता ॥ टेक ।।
संसार भवंगम उसिले काया,
अरु दुख दारन ब्यापै तेरी माया ।।
सापनि एक पिटारै जागै,
___ अह निसि रोवै ताकू फिरि फिरि लागै ॥ .
कहै कबीर को को नहीं राखे,
राम रसाइन जिनि जिनि चाखे ॥ ८३ ॥
माया तजूतजी नहीं जाइ,
फिर फिर माया मोहि लपटाइ ।। टेक ॥
माया प्रादर माया मान, माया नहीं तहां ब्रह्म गियांन ।
माया रस माया कर जान, माया कारनि तजै परान ॥
माया जप तप माया जोग, माया बांधे सबही लोग॥
(1)ख-सखम न भेद लपाई ॥
(८२) ख०-हान न देई हरि के चरन निवासा ।
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कबीर-ग्रंथावली