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कबीर-ग्रंथावली

सब घटि एक एक करि जांनैं,भीं दूजा करि मारै ।।
कुकड़ी मारै बकरी मारै,हक हक करि बोलै ।
सबै जीव सांईं के प्यारे,उबरहुगे किस बोलै ॥
दिल नहीं पाक पाक नहीं चीन्हां,उसदा षोज न जांनां ।
कहै कबीर भिसति छिटकाई,दोजग ही मन मांनां ॥ ६२ ॥

या करीम बलि हिकमति तेरी,
खाक एक सूरति बहु तेरी ।। टेक ॥
अर्ध गगन मैं नीर जमाया,बहुत भांति करि नूरनि पाया ॥
अवलि प्रादम पीर मुलांना, तेरी सिफति करि भये दिवानी ॥
कहै कबोर यहु हेत बिचारा,या रब या रब यार हमारा ॥६३॥

काहे री नलनीं तूं कुमिलांनी,
तेरें ही नालि सरोवर पांनीं ॥ टेक ॥
जल मैं उतपति जल मैं बास,जल मैं नलनी तोर निवास ॥
ना तलि तपति न ऊपरि आगि,तोर हेत कहु कास नि लागि ॥
कहै कबीर जे उदिक समांन,ते नहीं मूए हमारे जान ॥६४॥

इब तूं हसि प्रभू मैं कुछ नांहीं,
पंडित पढि अभिमांन नसांहीं ॥ टेक ॥
मैं मैं मैं जब लग मैं कीन्हां,तब लग मैं करता नहीं चीन्हां ॥
कहै कबीर सुनहु नरनाहा,ना हम जीवत न मूंबाले माहां ॥६५॥

अब का डरौं डर उरहि समांनां,
जब थैं मोर तोर पहिचांनां ॥ टेक ॥
जब लग मोर तोर करि लीन्हां,भै भै जनमि जनमि दुख दीन्हां।
आगम निगम एक करि जांनां,ते मनवां मन मांहिं समांनां ॥


( ६२ ) ख-उसका खोज न जांनां ।