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पदावली

काजी कौन कतेब बषांनै ।
पढ़त पढ़त केते दिन बीते,गति एकै नहाँ जांनैं ॥ टेक।।
सकति से नेह पकरि करि सुनति,यहु नबदूं रे भाई ।
जौर षुदाइ तुरक मोहि करता,तो आपै कटि किन जाई ।।
हौं तौ तुरक किया करि सुनति,औरति सौं का कहिये ।
अरध सरीरी नारि न छूटै,आधा हिंदू रहिये ॥
छाडि कतेब रांम कहि काजी,खून करत हौ भारी ।
पकरी टेक कबीर भगति की,काजी रहे झष मारी ।। ५६ ॥

मुलां कहाँ पुकारै दूरि,रांम रहीम रह्या भरपूरि ॥ टेक ॥
यहु तौ अलह गूंगा नांहीं,देखै खलक दुनी दिल माहीं ।।
हरि गुंन गाइ बंग मैं दोन्हां,काम क्रोध दोऊ बिसमल कीन्हां ॥
कहै कबीर यहु मुलनां झूठा,रांम रहींम सबनि मैं दोठा ॥६०॥

पढि ले काजी बंग निवाजा,
एक मसीति दसौं दरवाजा ॥ टेक ।।
मन करि मका कविला करि देही,बोलनहार जगत गुर येही ॥
उहाँ न दोजग भिस्त मुकांमां,इहां हीं रांम इहां रहिमांनां ।।
बिसमल तांमस भरंम कं दूरी,पंचू भषि ज्युं होइ सबूरी ।।
कहै कबीर मैं भया दिवांनां,मनवां मुसि मुसि सहजि समांनां ॥६१॥

मुलां करि ल्यौ न्याव खुदाई,
इहि बिधि जीव का भरम न जाई ।। टेक ।।
सरजी आंनै देह बिनासै,माटी बिसमल कीता ।
जोति सरूपी हाथि न आया,कही हलाल क्या कीता ।।
बेद कतेष कहौ क्यूं झूठा,झूठा जो नि बिचारै ।


( ६१ ) ख०--मन करि मका कविला करि देही ,
राजी समझि राह गति येही।