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कबीर-ग्रंथावली

लष चौरासी जीव जंत मैं भ्रमत भ्रमत नंद थाकौ रे ।।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसो,भगति करै हरि ताकौ रे ॥४८॥

निरगुण रांम निरगुंण रांम जपहु रे भाई,
अबिगति की गति लखी न जाई ॥ टेक ॥
चारि बेद जाकै सुमृत पुरांनां,नौ ब्याकरनां मरम न जांनां ॥
सेस नाग जाकै गरड़ समांनां,चरन कवल कवला नहीं जानां ।।
कहै कबीर जाकै भेदै नांहीं,निज जन बैठे हरि की छाँहीं ॥४६॥

मैं सबनि मैं औरनि मैं हूं सब ।
मेरी बिलगि बिलगि बिलगाई हो,
कोई कहौ कबीर कोई कहौ रांम राई हो । टेक ॥
नां हम बार बूढ नांहीं हम,नां हमरै चिलकाई हो ।
पठए न जांऊं अरवा नहीं आंऊं,सहजि रहुं हरिआई हो ।।
वोढन हमरै एक पछेवरा,लोक बोलें इकताई हो ।
जुलहै तनि बुनि पांन न पावल,फारि बुनी दस ठांईं हो ।।
त्रिगुंण रहित फल रमि हम राखल,तब हमारौ नांउ रांम राई हो।
जग मैं देखौं जग न देखै मोहि,इहि कबीर कछु पाई हो ॥५०॥

लोका जांनि न भूलौ भाई।
खालिक खलक खलक मैं खालिक,सब घट रह्यो समाई।टेक॥
मला एकै नूर उपनाया,ताकी कैसी निंदा ।
ता नूर थैं सब जग कीया,कौन भला कौन मंदा ॥
ता मला की गति नहीं जांनों,गुरि गुड़ दीया मींठा ।
कहै कबीर मैं पूरा पाया,सब घटि माहिब दोठा ॥ ५१ ॥


( ५० ) ख०-ना हम बार बूढ पुनि नांहीं ।