पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१७५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६१
पदावली

 उलटे पवन चक्र षट बेधा,सुंनि सुरति लै लागी ।
 अमर न मरै मरै नहीं जीवै,ताहि खोजि बैरागी ।
 अनभै कथा कवन सौं कहिये,है कोई चतुर बबेकी ।
 कहै कबीर गुर दिया पलीता,सो झल बिरलै देखी ॥८॥

   इहि तत रांम जपहु रे प्रांनी,बूझौ अकथ कहांणीं ।
   हरि कर भाव होइ जा ऊपरि,जाग्रत रैनि बिहांनी । टेक ।।
 डॉइन डारै सुन हाँ डोरै,स्यंध रहै बन धेरै।
 पंच कुटंब मिलि झूझन लागे,बाजत सबद संधेरै ।।
 रोहै मृग ससा बन धेरै,पारधी बांण न मेलै ।
 सायर जलै सकल बन दाझै,मंछ अहेरा खेले ।
 सोई पंडित सो तत ग्याता,जो इहि पदहि बिचारै ।
 कहै कबीर सोइ गुर मेरा,आप तिरै मोहि तारै । ६ ।।

  अवधू ग्यांन लहरि धुनि मांडी रे ।
  सबद अतीत अनाहद राता,इहि विधि त्रिष्णां षांडी ।।टेक।।
 बन कै ससै समंद घर कीया,मछा बसै पहाड़ी।
 सुइ पीवै बाम्हण मतवाला,फल लागा विन बाड़ी ।।
 षाउ बुणैं कोली मैं बैठी,मैं खुंटा मैं गाड़ी।
 तांणैं बांणैं पड़ी अनंवासी,सूत कहै बुणि गाढी ।।
 कहै कबीर सुनहु रे संतौ,अगम ग्यांन पद मांहीं।
 गुर प्रसाद सूई कै नांकै,हस्ती आवैं जांहीं ॥ १० ।।

   एक अचंभा देखा रे भाई,ठाढ़ा सिंघ चरावै गाई ।। टेक ॥
 पहलैं पूत पीछैं भई माइ,चेला कै गुर लागै पाइ॥
 जल की मछली तरवर व्याई,पकड़ि बिलाई मुरगै खाई ।