पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१७१

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( २ ) पद

[राग गौड़ी]
 दुलहनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आये हो राजा रांम भरतार || टेक ।।
 तन रत करि मैं मन रत करिहूँ,पंचतत बराती।
 रांमदेव मोरै पाहुनैं आयें,मैं जोबन मैंमाती ।।
 सरीर सरोवर बेदी करिहूँ,ब्रह्मा बेद उचार ।
 रांमदेव संगि भांवरि लैहूँ,धंनि धंनि भाग हमार ॥
 सुर तेतीसूं कौतिग आये,मुनियर सहम अठ्यासी ।
 कहैं कबीर हंम ब्याहि चले हैं,पुरिष एक अबिनासी ॥१॥
 .
 बहुत दिनन थैं मैं प्रीतम पाय,
भाग बड़े घरि बैठें आये ।। टेक ।।
 मंगलचार मांहिं मन राखौं,राम रसांइण रसनां चाषौं ।
 मंदिर मांहिं भया उजियारा,ले सूती अपनां पीव पियारा ॥
 मैं रनि रासी जे निधि पाई,हमहि कहा यहु तुमहि बड़ाई।
 कंहै कबीर मैं कछू न कीन्हां,सखी सुहागरांम मोहि दीन्हां॥२॥

 अब ताहि जान न देहूं राम पियारे,
ज्यूं भावै त्यूं होह हमारे । टेक ॥
 बहुत दिनन के बिछुरे हरि पायें,भाग बडे घरि बैठें आये।
 चरननि लागि करौं बरियाई,प्रेम प्रीति राखौं उरझाई ।।
 इत मन मंदिर रहौ नित चोषै,कहै कबीर परहु मति घोषै ॥२॥