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कबीर-ग्रंथावली

( ५८ ) बेली कौ अंग


अब तौ ऐसी है पड़ी,नां तूं बड़ी न बेलि ।
जालण आंणीं लाकड़ी,ऊठी कुंपल मेल्हि ॥१॥
आगैं आगैं दौं जलै,पीछैं हरिया होइ ।
बलिहारी ता बिरष की,जड़ काट्यां फल होइ ॥ २ ॥
जे काटौं तो उहडही,सींचों तौ कुमिलाइ ।
इस गुणवंती बेलि का,कुछ गुंण कह्या न जाइ ॥ ३ ॥
आंगणि बेलि अकासि फल,प्रण ब्यावर का दूध ।
ससा सींग की धूनहड़ी,रमैं बांझ का पूत ।। ४ ।।
कबीर कड़ई बेलड़ी,कड़वा ही फल होइ ।
सांध नांव तब पाइये,जे बेलि बिछोहा होइ ॥ ५ ॥
सींध भई तब का भया,चहुँ दिसि फूटी बास ।
अजहूँ बीज अंकूर है,भीऊगण की आस ॥ ६ ॥८०६

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(५८) अबिहड़ कौ अंग


कबीर साथी सो किया,जाकै सुख दुख नहीं कोइ ।
हिलि मिलि है करि खेलिस्यू,कदे बिछोह न होइ ॥१॥
कबीर सिरजनहार बिन,मेरा हितू न कोइ।
गुण औगुण बिहडै नहीं,स्वारथ बंधी लोइ ॥ २॥ .
आदि मधि अरू अंत लौं,अबिहड़ सदा अभंग ।
कबीर उस करता की,सेवग तजै न संग ॥ ३ ॥८०६।।

(५८-२) ख०-दौं बलै ।
( ६ ) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
सिंधि जु सहजैं फुकि गई,अागि लगी बन मांहि ।
बीज बास दून्यूं जले,जगण कौ कुछ नाहिं ॥ ७ ॥