कहै कबीर कठोर कै,सबद न लागै सार ।
सुध बुध कै हिरदै भिदै,उपजि बिबेक बिचार ॥ ७ ॥
मा सीतलता कै कारणैं,माग बिलंबे आइ ।
रोम रोम बिष भरि रह्या,अंमृत कहां समाइ ॥८॥
सरपहि दूध पिलाइये, दूधैं बिष है जाइ ।
ऐसा कोई नां मिलै,स्यूं सरपैं विष खाइ ॥ ६ ॥
जालौं इहै बडपणां,सरलै पेड़ि खजूरि ।
पंखी छांह न बोमवैं,फल लागैं ते दूरि ॥ १० ॥
ऊंचा कुल कै कारणैं,बंस बध्या अधिकार ।
चंदन बास भेदै नहीं,जाल्या सब परिवार ।। ११ ।।
कबीर चंदन कै निड़ै,नींव भि चंदन होइ।
बूडा बंस बडाइतां,यौं जिनि बूड़े कोइ ॥ १२॥ ७६० ।।
___
(५६ ) बीनती कौ अंग
कबीर सांईं तौ मिलहिंगे,पूछहिगे कुसलात ।
आदि अंति की कहूंगा,उर अंतर की बात ॥ १ ॥
कबीर भूलि बिगाड़ियां,तूं नां करि मैला चित ।
साहिब गरवा लोड़िये,नफर बिगाड़ैं नित ।। २ ।।
(७) इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
बेकांमी को सर जिनि बाहै,साठी खोवै मूल गंवावै ।
दास कबीर ताहि को बाहै,गलि मनाह सनमुख सरसाहै ॥८॥
पसुवा सौं पांनौं पड़ो,रहि रहि याम खीजि ।
ऊसर वायौ न ऊगसी,भावै दूणां बीज ।। ६ ॥
(१) यह दोहा ख० प्रति में नहीं है।